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आंच: 4th year Anniversary Rhymeshot (Hindi) Winner – Elemental Tuesday

Rhyme shot fire

हमारे 4th Year Anniversary Rhymeshot के विजेता की रचना पढ़ें,
जिसने ‘आंच’ की गहराई और भावनात्मक ऊर्जा को खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है।

वर के सिर पर सजा है ताज,चहुँओर बज रहे हैं साज
फेरे लेकर अग्निकुंड के,कहते सदा रहेंगे साथ
निभा ना पाए चार माह भी,धू-धूकरके लगा दी आग
क्या यह वही आँच है?
निर्धनता अभिशाप है भारी,उस पर महँगाई महामारी
भूख की अग्नि पेट में धधके,कैसे क्षुधा मिटाए बेचारी
चूल्हे की अगन से ही तो,बुझे पेट की अगन ओ भाई
क्या यह भी वही आँच है?
कैंडल जला हम शोक मनाते,वहशी फिर भी न घबराते
व्यथा पूछकर देखे कोई उससे,किस अग्नि में उसे जलाते
यही अगन क्या लगा सकेंगे ,जहाँ रहतीं माँ बहन लुगाई
फिर यह कैसी आँच है?
रुचि असीजा “रत्ना “

उनकी इच्छाओं से बढ़कर है उनके कर्त्तव्यों का मान,
अपने घर परिवार को कर त्याग, रहकर सीमा पर तैनात, लहराते तिरंगा का आन।
दिल में सुलगती देशप्रेम आंच में झलकता एक सैनिक की अतुल्य बलिदान।
धैर्य, साहस और स्थिरता है उनकी पहचान,
देश में शांति और सद्भाव को बनाए रखने में ही उनकी शान।
एकनिष्ठ प्रतिज्ञा के आंच में खुद को न्योछावर करना एक सैनिक का अभिमान।
कण कण में बसता देश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता,
कारगिल से पुलवामा तक दिखाया उन्होंने अपनी अद्भुत शौर्यता।
आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के आंच में एक सैनिक लिखता अपना जीवन गाथा।
सुधा रानी पति

रुको,सुनो,मत छेड़ो मन के तार,प्रिय,
मत देखो ऐसी नज़रों से,दबी दबी सी चाहत को,
अंतर्मन के तूफ़ाँ को ,मन के अंदर ही रहने दो,
प्रेम भरी इन बातों से,मत दो प्रेम को आँच,प्रिय,
हल्की सी इक चिंगारी,करती है गुलशन को ख़ाक,
छोटी सी चूक हज़ारो दुखों को ले आती है साथ,
यह दुनिया कब जीने देगी, हर कदम भरा है मुश्किल से,
महलों को कब भाया है, साथ झोंपड़ी वालों का,
मन की मन में ही रहने दो, वरना कब रुक पाएगी,
यह आँच फैल के गुलशन में। हर गुल को झुलसाएगी।
सरिता खुल्लर

आंच की तपन पर चंद लम्हों का गुजरना,
जिंदगी के अनमोल घड़ियों का सिमटना।
मुस्कुराहट की नजाकत का गुम होना,
जिंदगी के गुलिस्तां में आंसुओं का खजाना।
काश सिर्फ खुशियां ही खुशियां होती,
जीवन पतंग की डोर कभी नहीं कटती।
खिलखिलाहट की बौछार होती,
आंखों में नमी की काई नहीं जमती।
रिश्तों की दीवार में दरार नहीं पड़ती,
उस पर ढकोसलों की पुट्टी नहीं पड़ती।
दोगलापन और खुदगर्जी नहीं होती,
जिंदगी एक खुली किताब होती।
आंच की गर्मी में हम सिर्फ़ अपनत्व को सेंक पाते,
उस पर से ऊंच नीच की मायूसियों को हटा पाते,
संग मिल कर गरीब अमीर की खाई पाटते,
एकजुटता से रोटी के कौर चबाते।
उमा नटराजन

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