आज फिर जब बारिश की बूंदें मुझ पर पड़ीं, तन के साथ मन भी भिगो गईं। मन न माना, कुछ भरे पानी में पैरों से छपाक कर मुस्कुराई। कहीं उन सड़कों पर बचपन दौड़ चला, बचपन की हर बात एक-एक कर याद आई।
हमारा वो पुराना घर, जहाँ बचपन बीता, वहीं कहीं आज भी भागता-दौड़ता, बारिश में भीगता, नाचता-खेलता नज़र आया। बारिश में भीगने को माँ मना नहीं करती थीं। बादलों की गड़गड़ाहट सुन ज़ाफ़री से झांकना और बौछार पड़ते ही बाहर आ जाना। आसमान की तरफ़ ताकना और प्रार्थना करना – “भगवान जी, ज़ोर से पानी बरसाना।” ख़ूब घूम-घूमकर नाहना, तर-बतर होना – जब तक ठंड न लगने लगे तब तक घर में न आते।
बारिश के रुकने पर हम बच्चे मिलकर पेड़ के नीचे खड़े हो डालियाँ हिलाते तो हम पर पानी झड़ता, फिर उछल-उछलकर नाचते। आम खाकर उसकी गुठलियाँ बागीचे की क्यारी में दबाते रहते। बारिश पड़ने पर उनमें किल्ले फूट आते, तब हम उन्हें उखाड़कर पत्थर पर घिसकर उनकी पीपनी बना बजाते।
बारिश में बहती हमारी कागज़ की नाव को कैसे भूलूँ! जब चारों तरफ़ पानी भरता, हम बड़े भाई के पास कॉपी का पन्ना फाड़ नाव बनवाते और पानी में छोड़ उसे बहते देखते रहते।
बारिश में धुली तारकोल की सड़क, जिस पर ऑफिस जाने वाले अंकल लोगों की लाइन और सबके हाथों में काली छतरियाँ – मुझे (बचपन की कल्पना भर) एक लंबा साँप प्रतीत होती थी। मैं अपने पापा से रंगीन इंद्रधनुषी छतरी की फ़रमाइश करती, मुझे भाइयों जैसी काली छतरी न भाती। छतरी लगाकर भी भीगने में क्या मज़ा आता! सोचती कि अगले दिन ‘रेनी डे’ हो जाए तो मज़े ही मज़े हों।
रविवार को पापा की छुट्टी होती और ऐसे में बारिश – तब हम सब बरामदे में मिलकर पकौड़ों का आनंद लेते। हाय रे वो दिन!
हरी घास में लाल मखमली कीड़े जिन्हें हम “राम जी की गुड़िया” कहते थे, भाई उन्हें माचिस की डिब्बी में बंद कर हमें खोल-खोलकर दिखाते। कभी हथेली पर चलाते, तो हम कितने खुश होते। फिर उन्हें वहीं घास में छोड़ दिया जाता।
मेरे पापा मेरे लिए झूला डालते। स्कूल से आते ही अपनी गुड़िया को ले बस खूब झूलती और खाना भी उसी पर बैठकर खाती।
घर बदला, बड़ा भी था, जहाँ बागीचा भी था, पर फिर झूला न पड़ा। मैं भी बड़ी हो गई थी न! बरखा भी आती, मन पहले सा न मचलता। पर फिर भी लॉन में आकर चुपके से भीगकर अंदर भाग जाती। अब हमारी नाव भी भरे पानी में कहाँ चलती! अब मन रंगीन छतरी की फ़रमाइश न करता। अब ऑफिस जाने वाले अंकल लोगों को भी नहीं देखती थी। आम की गुठली मिट्टी में दबाना भी छूट गया और पीपनी की आवाज़ भी खो गई।
हम बड़े हुए, पर बचपन की यादों के झरने अब भी झरते हैं।
बारिश की फुहारें आज भी मन और आँखें भिगो जाती हैं।
Image Courtesy: https://www.pexels.com/@diamxlive/
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– मीनाक्षी जैन

लेखक परिचय: मीनाक्षी जैन
- जन्म स्थान – दिल्ली
- शिक्षा – दिल्ली
- योग्यता – क्लिनिकल साइकोलॉजी में ग्रेजुएशन
मीनाक्षी जैन ने विदेशी सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर भारत के दूर-दराज़ गांवों में पेंटोमाइम के माध्यम से शिक्षा से जुड़े कई कार्यक्रमों में भाग लिया। उन्होंने दूरदर्शन पर भी अपनी प्रस्तुतियाँ दीं।
इनकी लेखनी समाज, संस्कृति और मानवीय भावनाओं की गहरी समझ को उजागर करती है।
इनकी रचनाएँ न केवल पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक नए दृष्टिकोण से देखने का अवसर भी प्रदान करती हैं। इनके कार्यों में गहरी विचारशीलता और संवेदनशीलता झलकती है, जो पाठकों को प्रेरित करती है।