कहते हैं, प्रेम अंधा होता है। पर क्या सचमुच प्रेम अंधा होता है, या समाज उसे देखने से इनकार करता है? यही प्रश्न सदा से मानव हृदय को मथता रहा है।
कहानी शुरू होती है आर्या से — एक सीधी-सादी, भावुक युवती, जिसे किताबों में प्रेम कविताएँ पढ़ना पसंद था। उसके लिए प्रेम कोई खेल नहीं, बल्कि आत्मा का मिलन था। वह मानती थी कि सच्चा प्रेम पूजा की तरह होता है, जिसमें समर्पण होता है, अपेक्षा नहीं।
आर्या की मुलाकात अविरल से एक पुस्तक प्रदर्शनी में हुई। दोनों ने एक ही पुस्तक पसंद की। शब्दों के प्रति दोनों का झुकाव उन्हें करीब ले आया। बातचीतें लंबी होती गईं, संदेश कविताओं में ढलने लगे। अविरल ने उसे बताया, “प्रेम कोई वादा नहीं, एक अहसास है, जिसे शब्दों की नहीं, मौन की ज़रूरत होती है।” आर्या मुस्कराई थी — उस मुस्कान में अपनापन था और शायद प्रेम भी।
धीरे-धीरे यह संबंध गहराता गया। आर्या हर दिन उसके संदेश का इंतज़ार करती। पर एक दिन अचानक अविरल का व्यवहार बदल गया। उसने संदेशों का जवाब देना बंद कर दिया। आर्या बेचैन रहने लगी। उसे समझ नहीं आया कि गलती कहाँ हुई। उसने हर जगह उसे ढूंढा, लेकिन अविरल जैसे धुंध में गुम हो गया था।
सहेली ने कहा, “पागल हो गई हो आर्या, एक लड़के के लिए यूं तड़पना उचित नहीं।”
मगर आर्या के मन में कुछ और ही था। वह कहती, “अगर किसी को पूरे मन से चाहना पागलपन है, तो मैं यह पागलपन हर जन्म में चाहूंगी।”
दिन बीतते गए। आर्या ने प्रेम को खोने के दर्द को अपनी कविताओं में ढाल दिया। उसकी लिखी पंक्तियाँ लोगों के दिल छूने लगीं। एक दिन एक साहित्यिक कार्यक्रम में, उसी मंच पर अविरल भी उपस्थित था। मंच से आर्या ने अपनी कविता पढ़ी —
“वो जो छोड़ गया, शायद सोचता होगा
प्रेम मेरा पागलपन था…
पर मैं कहती हूं,
जिसमें खुद को भूल जाना पड़े,
वो प्रेम नहीं, आराधना होती है।”
अविरल के आँसू बह निकले। वह समझ गया कि आर्या का प्रेम पागलपन नहीं, वंदना थी। उसने मंच के पीछे जाकर आर्या से कहा,
“तुम्हारा प्रेम मुझे झुकना सिखा गया।”
आर्या मुस्कराई — “प्रेम सिर झुकाने का नहीं, आत्मा उठाने का नाम है।”
उस दिन आर्या ने जाना कि सच्चा प्रेम किसी को पाने में नहीं, उसे उसके सुख में मुक्त कर देने में है।
प्रेम पागलपन तब बनता है जब उसमें स्वार्थ घुल जाता है, और वंदनीय तब होता है जब उसमें समर्पण होता है।
आर्या ने न अविरल को पाया, न भुलाया — उसने उसे अपनी कविताओं में अमर कर दिया।
क्योंकि सच्चा प्रेम न समय मांगता है, न प्रतिदान… वह तो बस बहता है — निर्मल, निश्छल और पवित्र।
इसलिए, प्रेम — पागलपन नहीं, वंदनीय है।
चित्र सौजन्य: https://www.pexels.com/@cherry-laithang-1866685/
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– अम्बिका मल्लिक

लेखिका परिचय :
अम्बिका मल्लिक दरभंगा (बिहार) की निवासी हैं। एक गृहिणी होने के साथ-साथ वे एक समर्पित और संवेदनशील लेखिका भी हैं। उनकी रचनाएँ अब तक सात साझा काव्य संग्रहों और एक साझा कहानी/लघुकथा संकलन ‘दहलीज़ से आगे’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।
वे मुक्तक, ग़ज़ल, सायली, हाइकु, चोका, वर्ण पिरामिड, दोहा और घनाक्षरी जैसी अनेक विधाओं में लेखन करती हैं। उनकी रचनाएँ कई ई-पेपर, ई-बुक्स और साहित्यिक मंचों पर प्रकाशित एवं सम्मानित हो चुकी हैं।
प्रमुख सम्मान:
- कर्णप्रिय ललिता देवी सम्मान
- श्री साहित्य सम्मान
- चेतना परवाज़ कलम की सम्मान
अम्बिका मल्लिक मैथिली भाषा में भी कविताएँ, गीत और संस्मरण लिखती हैं। उनकी लेखनी में गहराई, सहजता और भावनाओं का सुंदर संगम दिखाई देता है।