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बचपन की गर्मियों की छुट्टियाँ: गाँव, जंगल और यादों की मिठास

Kids enjoying a sunny day flying kites on a wooden bridge over a river in the countryside.

गर्मियों की छुट्टियाँ किसी खूबसूरत सपने की तरह आती थीं। ऐसा लगता था मानो किसी जेल से रिहाई मिल गई हो। कहने को दो महीने थे, पर पता नहीं कब निकल जाते थे। छुट्टियाँ शुरू होते ही अगले दिन सारे गांव के बच्चे अपनी-अपनी गाय-बकरी लेकर जंगल चराने जाते। साथ में छुट्टियों के काम वाली कॉपी-किताबें भी ले जाते। सारा काम पहले चार-पांच दिन में खत्म करने की होड़ लगी होती। शुरू-शुरू में तो सुंदर-सुंदर लिखाई के साथ सुलेख लिखना और बाकी काम बहुत मन से करते, मगर उसके बाद फटाफट निपटाने में लग जाते।

जंगल में पीपल का एक घना पेड़ था, जिसकी छाया में बैठकर हम स्कूल का काम निपटाते। उसकी ठंडी हवाओं की थपकियाँ किसी नींद की दवा से कम नहीं थीं — कब आँख लग जाती, पता ही नहीं चलता था।

जंगल चील के पेड़ों से भरा हुआ था। उन पर चढ़कर हम पूरा दिन चोर-सिपाही खेलते। एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर बंदरों की तरह कूदते रहते। घर वाले बहुत समझाते थे कि गिर जाओगे, पर कौन सुनता था! जब थक जाते, तो पांच गिट्टियों का खेल, हाल कुंचाल, गिल्ली-डंडा, कंचे, कुश्तियां, कबड्डी — न जाने कितने ही खेल खेलते थे।

पहाड़ी के नीचे एक नदी थी, जो गहरी तो नहीं थी, मगर कहीं-कहीं किनारे पर पानी का तालाब बना रहता था। उसमें नहाकर शरीर ही नहीं, आत्मा भी तृप्त हो जाती थी। पहाड़ी से एक कुदरती पानी का चश्मा निकलता था, जिसके नीचे खुदाई करके हमने एक खड्डा बना दिया था, जिसमें पानी जमा हो सके। वो पानी इतना स्वच्छ, ठंडा और साफ था कि लौटते हुए घर के लिए भी बोतल भर लाते थे। वो चश्मा हमारे लिए किसी फ्रिज से कम नहीं था।

जंगल में कुछ पत्थर रखकर हमने एक मंदिर बनाया था, जिसमें हमारी आस्था दृढ़ थी। गाय-बकरी की सारी जिम्मेदारी उस मंदिर के हवाले कर देते। फिर हम सब बच्चे अपने-अपने घर से कोई चीनी, कोई सूजी, कोई घी ले आते और मंदिर के पास लकड़ियाँ इकट्ठा करके हलवा बनाते। पहले मंदिर में चढ़ाते, फिर खुद भी खाते। कभी-कभी घर से चावल लाकर बकरियों का दूध निकालकर खीर भी बनती थी। हर दिन किसी पिकनिक की तरह लगता था।

लोगों के खेतों से खीरे तोड़ लाना, मक्की लाना और जंगल में पकाकर खाना तो आम बात थी। कभी-कभी पकड़े भी जाते, तो खूब गालियाँ सुननी पड़ती, पर उनका कोई खास असर नहीं होता था।

जंगल में कई तरह के आम के पेड़ थे, जिनके नाम स्वाद के अनुसार रखे गए थे — सिंदूरी आम (जिसका रंग सिंदूर की तरह), लड्डू आम (जो गोल-गोल और बेहद मीठा), गधा आम (बहुत बड़ा, पर खट्टा)। जामुन के पेड़ों से जामुन तोड़ना, जंगली किन्नू खाना, चील के फल को भूनकर चिलगोजे निकालना — सबकुछ किसी त्यौहार जैसा था।

जंगल में आलू जैसे फल होते थे, जिनकी छोटी सी कोंपल मिट्टी से बाहर झाँकती थी। उसे देखकर हम खुदाई करते और वो फल निकालते। गरने के पौधे काले, पके हुए गरनों से भरे रहते थे, जिन्हें पलाश के पत्तों से बनी डूना (कटोरी) में भरकर जी-भर खाते थे।

खाने के लिए घरवाले गेहूं की रोटी और अचार दे देते थे — “भूख लगे तो खा लेना।” वो सूखी रोटी और अचार इतना स्वाद लगता था कि आज की कोई भी चीज उसके सामने फीकी लगती है।

बारिश से बचने के लिए जंगल में चार लकड़ियाँ गाड़कर उनके ऊपर चील की सूखी पत्तियाँ डाल देते थे। कढ़ी पत्तों की लकड़ियों से चारदीवारी बनाकर अपनी-अपनी झोंपड़ी सी बना ली थी। जब भी बारिश होती, हम उसी में छिप जाते।

वो बचपन — शरारतों से भरा, मस्ती में डूबा हुआ, बेफिक्री का आलम — अब कभी वापस नहीं आएगा। न जिंदगी की चिंता थी, न कमाने की फिक्र। अब वो सिर्फ यादों और ख्यालों में ज़िंदा रहेगा।

– अमित रत्ता

चित्र सौजन्य: https://www.pexels.com/@quang-nguyen-vinh-222549/
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लेखक परिचय : अमित रत्ता

अमित रत्ता, महाराणा प्रताप डिग्री कॉलेज, अंब से स्नातकोत्तर हैं और एक निजी व्यवसाय में संलग्न रहते हुए साहित्य सेवा में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। भावनाओं की गहराइयों को छू लेने वाले उनके लेखन ने न केवल पाठकों के दिलों को स्पर्श किया है, बल्कि उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सम्मानित भी किया गया है।

उनकी चर्चित कविताओं में “मेरी बेटी लौटा दो मुझे”“कैसे उसको संस्कार सिखाऊं”“अर्धांगिनी” और “जंगल की आग” जैसी रचनाएं शामिल हैं, जो सामाजिक सरोकारों और मानवीय संवेदनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं।

कहानियों की बात करें तो “घर की इज्जत”“दो रोटी सम्मान के साथ”“देवदासी – एक कलंक” तथा “अंतर्मन की टीस” जैसी रचनाएं समाज के यथार्थ को सजीव रूप में प्रस्तुत करती हैं।

उनकी प्रकाशित पुस्तकों में “जिंदगी की धूप-छांव”“मतलबी रिश्ते” और “ढलती सांझ” प्रमुख हैं। इसके अलावा वे कई साझा संकलनों जैसे “बाल काव्य संग्रह”“सरहद”“पूनम की रात” और “शिक्षाप्रद लघु कथाएं” में भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं।

अमित रत्ता का लेखन जीवन के अनुभवों, मानवीय मूल्यों और सामाजिक सच्चाइयों का जीवंत दस्तावेज़ है।

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