हमारे #Elemental Tuesdays चैलेंज के इस हफ्ते, लेखकों ने “धरती की छाया” विषय पर अपनी भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया। इन कविताओं के माध्यम से, प्रकृति की छांव और उसके महत्व को महसूस कीजिए।
इन रचनाओं में धरती की पीड़ा, उसकी देखभाल और हमारी जिम्मेदारी को खूबसूरती से पेश किया गया है। इन भावपूर्ण कविताओं को पढ़ें और प्रकृति के प्रति अपने रिश्ते को फिर से महसूस करें।
क्यों काटें हम पेड़ को, पाखी का यह वास।
प्राणवायु देते यही, जीव-जंतु की आस।
हरियाली भाती सदा, देती मन को मोद।
बालक को ज्यों थामती, माता अपनी गोद।
औषध मिलती पेड़ से, हरते तन की पीर।
शरदरात्रि जैसे बने, अमृत तुल्य वो खीर।
मूढ़ आज मानव हुआ, भूला बचपन काल।
चला काटने वृक्ष को, झूला जिसकी डाल।
धरती की छाया लगे, ज्यों नारी शृंगार।
शोभा नहीं बिगाड़िये, करो न इस पर वार।
– शशि लाहोटी
कर रही धरा क्रन्दन, अपने ही संतान के व्यवहार से
साफ़ कर रहा जंगल, कह रहा विकास की रफ्तार ये,
प्राणवायु भी सिमटती जा रही देखो,
बिलख रहा है मानव सूर्य से मिलती ऊष्मा के मार से।
नहीं छाया दिख रही कहीं, हर तरफ क्रंकीट की दीवार है,
धरती की छाया पूछती मनुज से, ये कैसा तुम्हारा प्यार है,
तरस जाओगे एक दिन तुम मेरी छाया के लिए,
हरियाली जब रहेगी तभी मिलती मेरी छाया बेशुमार है।
पेड़-पौधे जब तक रहेंगे, धरती की छाया तब तक रहेगी,
पशु और पक्षी के लिए जीवन की सुंदर कहानी गढ़ेगी,
छाया जब रूठ जाएगी, जीना मुश्किल हो जाएगा,
धरती की सुंदरता बनकर ये छाया, धरा में प्रेम को भरेगी।
– रूचिका राय
धरती कर रही क्रंदन, मत करो तुम मुझे कंगाल।
धरती की छाया नहीं रही तो, हो जाएगा बहुत बवाल।
रोपित करते आज जो पौधा, कल वृक्ष बन जाता है,
अपनी निर्मल छाया से हर श्रांत की शांति मिटाता है।
धरती की छाया का स्रोत यही है, यही है जीवन का आधार,
इसको अगर नष्ट कर देंगे, क्या नहीं होगा अत्याचार?
देखकर मानव की मनमानी, प्रकृति रुष्ट हो गई तब से,
वृक्षों को काट काट कर, शहर बसाए हमने जब से।
हे मानव! अब संभल भी जाओ, जीवन में खुशहाली लाओ,
धरती की छाया अगर चाहिए, तो हरे-भरे सब वृक्ष लगाओ।
चिंतन करना होगा हमको, रखना होगा पर्यावरण का ज्ञान,
कोई न काटे अब वृक्षों को, रखना होगा इसका ध्यान।
– रुचि असीजा
एक अनंत आकाश के नीचे छुपे
रहते हैं हम धरती की छाया में,
शशि और भानू की रोशनी से
मिलते हैं जिंदगी को अर्थ नए।
हरियाली और सुवासित पुष्पों संग,
नित हर्षित होता है चित हमारा,
जीवन की दुर्गम राहों में चलते,
धरा की छाया में खेलते हैं।
मेघ तड़ित करे राग अनुराग,
रिमझिम बूंदें धोती धरती के दाग,
हर धरती की पीड़, करे मन हर्षित,
धरती की छाया में होते हम पल्लवित।
आज दरक रही धरती की छाती,
बढ़ रहा ताप, घट रही छाया,
सिसक कर कह रही धरती,
हे मानव, समेट ले अपनी माया।
– रेखा मित्तल