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माँ के हाथों बुना स्वेटर: यादें, प्रेम और एहसास

Elderly woman enjoys knitting in a rustic cabin with a samovar on a sunny day.

पिंकी और सुधा दोनों गाढ़ी सहेलियां थीं। एक दूजे के बिना तो मानो उनका दिन कटता ही नहीं था। उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि ये दोनों अलग-अलग घरों से हैं।
वे दोनों कॉलेज में भी साथ-साथ ही दिखाई देती थीं। अगर कोई एक कॉलेज न गई, तो दूसरी शाम होते-होते खबर लेने उसके घर पहुँच जाती थी।

आज भी कुछ ऐसा ही दिन था। पिंकी कॉलेज नहीं गई थी। सुधा ने जैसे-तैसे करके दोपहर तक का समय कॉलेज में गुजारा, उसके बाद पहुँच गई पिंकी के घर।
पिंकी के घर पहुँचकर देखा तो उसकी मम्मी, भाभी और पिंकी तीनों मिलकर बड़े-बड़े ट्रंक खोलकर उसमें उलझे पड़े हैं।

सुधा ने सबको नमस्ते कर मुस्कुराते हुए कहा, “क्या चल रहा है? सभी बड़े व्यस्त दिखाई पड़ रहे हैं।”
तब पिंकी की मम्मी ने कहा, “अरे बेटा, तुम भी आ गई? खूब खुश रहो। चलो तुम आ ही गई हो, तो तुम भी हमारी मदद कर दो।”
सुधा ने कहा, “बताइए आंटी, क्या करना है? अभी करती हूँ।”

पिंकी की मम्मी ने कहा, “देखो न बेटा, मैंने इसमें एक हरे रंग का स्वेटर रखा था, मिल नहीं रहा। तब से सब ढूंढ-ढूंढकर परेशान हैं। तुम भी ढूंढो, शायद मिल जाए।”

पिंकी ने कहा, “ओह मम्मी, अब आप सुधा को भी उस पुराने स्वेटर के लिए परेशान करेंगी?”
“अरे बेटा, वह स्वेटर पुराना भले ही था मगर बेशकीमती था। तुम उसकी वैल्यू नहीं समझ रही। शायद समय बीतने के साथ तुम्हें उसकी अहमियत समझ आएगी।”

सुधा ने पूछा, “आंटी जी, क्या खास था उस स्वेटर में जो आप इतना परेशान हो रही हैं?”
पिंकी की मम्मी ने कहा, “अरे बेटा, वह स्वेटर मेरी माँ की निशानी थी। मेरी माँ कोई भी नया स्वेटर देख भर लेती थीं, बस हूबहू वैसा ही बना देती थीं।
उन्होंने कभी बाजार से रेडीमेड स्वेटर हमारे लिए नहीं खरीदा। जो भी उन स्वेटरों को देखता, तारीफ किए बिना नहीं रहता।
देखने में बिल्कुल मशीन की बुनाई जैसा, पहनने में आरामदायक और गर्म – वह स्वेटर हम सबकी पसंद था।

माँ कहती थीं, हाथों से बने स्वेटर के अनेक फायदे होते हैं। जब एक ही डिज़ाइन से मन भर जाए, तो उसे खोलकर फिर से नए डिज़ाइन का स्वेटर बनाया जा सकता है। ये जल्दी खराब नहीं होते और इनमें बुनने वाले की मेहनत और प्यार भी छुपा होता है।”

सुधा ने कहा, “आंटी, आप बिल्कुल सही कह रही हैं। मुझे भी बुना हुआ स्वेटर बहुत पसंद है। मेरे पास भी दो स्वेटर हैं, जो मम्मी ने अपने हाथों से बनाए हैं।
पर अब मम्मी की आँखों की रोशनी कम हो गई है, तो अब वह स्वेटर नहीं बना पातीं।
तो आपका नानी के हाथों बने स्वेटर के प्रति लगाव मैं समझ सकती हूँ। उसमें नानी का प्रेम और आशीर्वाद छुपा है।
चलिए, स्वेटर ढूंढने में मैं आपकी मदद करती हूँ।”

फिर सुधा, पिंकी और उसकी मम्मी एक बार फिर सारे पुराने कपड़े देखने लगीं।
तभी एक पॉलीथिन में हरे रंग का स्वेटर दिखाई पड़ा।
उसे देखते ही पिंकी की मम्मी खुशी के मारे रो पड़ीं, मानो उन्हें अपनी माँ से मुलाकात हो गई हो।

मम्मी को रोते देख पिंकी उनके गले लग पड़ी और बोली, “सॉरी मम्मी, मुझे नहीं पता था कि इस स्वेटर से आपका इतना लगाव है।
वाकई, यह स्वेटर सिर्फ स्वेटर नहीं बल्कि नानी का आशीर्वाद है। मैं भी इसे पहनकर कॉलेज जाऊंगी।
और हाँ, आप मेरे लिए भी ऐसा ही एक स्वेटर बना देना — प्यार के ऊन से बुना हुआ प्यारा सा स्वेटर।”

उसकी मम्मी ने कहा, “क्यों नहीं।”
और फिर सबके चेहरों पर एक मुस्कान खिल गई।

चित्र सौजन्य: https://www.pexels.com/@cottonbro
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– रूचिका राय

Writer author Ruchika Rai

लेखिका परिचय:

रूचिका, हिंदी साहित्य की एक समर्पित साधिका, अपने भावों और संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में विश्वास रखती हैं। उनका जन्म 29 अक्टूबर 1982 को श्री राजकिशोर राय और श्रीमती विनीता सिन्हा के परिवार में हुआ। हिंदी में स्नातकोत्तर एवं बी.एड. की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने शिक्षण को अपना पेशा बनाया और वर्तमान में राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय, तेनुआ, गुठनी, सिवान, बिहार में शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं।

साहित्य के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें लेखन की ओर प्रेरित किया, जिसके परिणामस्वरूप उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनकी एकल काव्य संग्रह “स्वपीड़ा से स्वप्रेम तक” और “तितिक्षा (भावों का इंद्रधनुष)” पाठकों द्वारा सराही गई हैं। उन्होंने “अभिनव अभिव्यक्ति (ए बांड ऑफ नवोदयन्स), इबादत की तामीर, अभिनव हस्ताक्षर, दुर्गा भावांजलि, शब्ददीप (इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल)” और “काव्यमणिका” जैसे साझा संकलनों में भी योगदान दिया है। इसके साथ ही, “अभिव्यक्ति (बांड ऑफ नवोदयन्स)” की उप-संपादक के रूप में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही है।

कई साहित्यिक मंचों से पुरस्कृत रूचिका अपनी कविताओं के माध्यम से जीवन की कड़वी-मीठी सच्चाइयों और कोमल कल्पनाओं को साकार करती हैं। वे मानती हैं कि अनुभूत संवेदनाओं का कोई मोल नहीं होता और भावनाएँ ही जीवन पथ पर आगे बढ़ने का संबल देती हैं।

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