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परकाया प्रवेश: एक रहस्य

A silhouette emerges through colorful projections, evoking spirituality and energy.

लेखिका – 1 (स्नेहा शुक्ला)

यह कहानी है मध्य प्रदेश के गाँव विदिशा (गुलाबगंज) की, सन 1983 के आसपास की। यह छोटा-सा गाँव उस वक्त बहुत ज्यादा विकसित नहीं था। इसी गाँव में हवेली थी ठाकुर जगदीश चौधरी की, और आज इस ठाकुर परिवार में जश्न का माहौल था।

ठाकुर जगदीश चौधरी की हवेली आज दुल्हन की तरह सजी थी। उनकी पत्नी कमला देवी जी सारे काम की तैयारियाँ देख रही थीं। जगदीश चौधरी ने अपने मातहतों को सख्त चेतावनी दी थी कि जब तक हवेली में उत्सव का माहौल रहेगा, गाँव में कोई भी भूखा नहीं सोएगा।
और हो भी क्यों न! ठाकुर साहब के इकलौते बेटे की शादी जो थी।

हालाँकि, जगदीश जी की पत्नी कमला देवी इस विवाह से बहुत खुश नहीं थीं। अपने इकलौते बेटे सुवर्धन की शादी वह अपनी बराबरी के परिवार में करवाना चाहती थीं। कमला जी की नाराजगी कहीं न कहीं सही भी थी—इतनी मन्नतों के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। उसके रूप को देखकर ही उसका नाम सुवर्धन रखा गया था। बड़े होने पर उसने यह साबित भी कर दिया था—”यथानाम तथागुण”। उसके गुण भी उसके नाम को सत्य साबित कर रहे थे—माता-पिता का आज्ञाकारी और सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करने वाला। जिससे भी बात करता, उसे अपना बना लेता था।
अब अपने राजकुमार जैसे पुत्र का विवाह किसी राजकुमारी से करने की उनकी इच्छा गलत तो नहीं थी।

पर जगदीश जी ने साधारण से परिवार में पली-बढ़ी, सुंदर, सुशील और सुघड़ भाग्यलक्ष्मी को अपने परिवार की बहू के लिए पसंद किया। उन्होंने भाग्यलक्ष्मी के व्यवहार और उसकी समझदारी को देखकर यह अच्छी तरह से अनुमान लगा लिया था कि यह लड़की दौलत की चकाचौंध से प्रभावित होने वाली नहीं है। अगर ज़रूरत पड़ी, तो भाग्यलक्ष्मी उनकी संपत्ति को दिन दूना और रात चौगुना करने की क्षमता भी रखती थी। उसके इसी गुण ने जगदीश जी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था।
उन्हें यह भी विश्वास था कि धीरे-धीरे ही सही, पर भाग्यलक्ष्मी अपने व्यवहार से कमला जी का दिल भी जीत लेगी।

जगदीश जी के बेटे सुवर्धन ने अब तक अपनी होने वाली पत्नी की सिर्फ तस्वीर ही देखी थी। न तो किसी ने लड़के और लड़की को आपस में मिलवाने की कोशिश की थी और न ही उसने अपनी तरफ से यह इच्छा जताई थी। पिता के फैसले को उन्होंने आज्ञा मानकर विवाह के लिए हाँ कर दी थी।
सुवर्धन अपनी पत्नी को देखने और उससे बातें करने के लिए उत्सुक तो था ही, साथ ही थोड़ी घबराहट भी थी।

विवाह संपन्न हुआ और विदाई के बाद की सारी रस्मों-रिवाजों से निश्चिंत होकर, दोनों पहली बार अकेले में एक-दूसरे के आमने-सामने थे। बात कहाँ से शुरू करें, यह दोनों को ही समझ में नहीं आ रहा था। कमरे में एक गहरी चुप्पी छाई हुई थी—पर इस चुप्पी से मन में गुदगुदी-सी हो रही थी।

सुवर्धन ने धीरे से कदम आगे बढ़ाया तो महसूस किया कि भाग्यलक्ष्मी अपने आप में ही सिमटी जा रही थी। उसे तसल्ली देते हुए उसने कहा,
“घबराइए नहीं। मैं आपका दोस्त पहले हूँ। हमारा रिश्ता पति-पत्नी से पहले एक दोस्त का होगा। एक-दूसरे को जानने और समझने के लिए रिश्तों में दोस्ती होना ज़रूरी है, ना!”

उसकी इस बात से भाग्यलक्ष्मी को बड़ी राहत मिली। एक लंबी साँस छोड़ने की गर्माहट भी सुवर्धन ने महसूस की।
“जी, शुक्रिया… मुझे अच्छा लगा कि आपने हमारे रिश्ते को बड़ी खूबसूरती के साथ निभाने का सोचा है…”

“क्या मैं आपका घूंघट उठा सकता हूँ?” — सुवर्धन ने भाग्यलक्ष्मी से आज्ञा माँगी।
जिस पर भाग्यलक्ष्मी ने मौन सहमति में सिर हिलाकर स्वीकृति दी।

भाग्यलक्ष्मी का घूंघट उठाते ही सुवर्धन के लिए वह पल ठहर-सा गया… कहते हैं न, “पहली नज़र का प्यार”… शायद उसे वही हो गया था।
और सिर्फ सुवर्धन ही क्यों, भाग्यलक्ष्मी भी अपने पति को देखकर मोहित हो गई थी।
पहले उसका स्वभाव और अब उसका रूप — सुवर्धन को अपने पति के रूप में पाकर भाग्यलक्ष्मी को आज अपने नाम पर बड़ा गर्व हो रहा था।

समय बीतता गया। सुवर्धन और जगदीश जी के साथ-साथ भाग्यलक्ष्मी ने पूरी हवेली को भी अपने मधुर व्यवहार से अपना बना लिया था।
कमला जी भी अब उससे ज़्यादा नाराज़ तो नहीं थीं, पर हाँ — थोड़ी दूर-दूर ज़रूर रहती थीं।
जगदीश जी ने अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश भी की, पर कहते हैं न — स्त्री मन!
एक बार अगर मन में कुछ ठान ले तो जल्दी वह गाँठ खोलती नहीं।

पर, भाग्यलक्ष्मी अपने प्रयास में लगी हुई थी। सुवर्धन अपने पिता के व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए बराबरी से उनका साथ देने लग गया था।
इस सिलसिले में उसे अक्सर शहर जाना पड़ता और अब शहर से कभी-कभी ही गाँव आना हो पाता था।
कभी हफ़्ते में एक बार तो कभी पंद्रह दिन पर।

जगदीश जी ने अपनी सारी ज़िम्मेदारी पुत्र सुवर्धन को सौंप दी थी और स्वयं अकाउंट्स का काम देखने लगे थे।
शादी के छह महीने होने को आए थे और अब भाग्यलक्ष्मी खुद को हवेली में अकेला महसूस करती थी।

फोन का प्रचलन ज़्यादा नहीं था। उस वक्त पत्राचार के ज़रिए बात होना आम था।
भाग्यलक्ष्मी की भी चिट्ठियों के ज़रिए ही बात हो पाती थी और हवेली में उसका ऐसा कोई संगी-साथी नहीं था, जिससे वह अपने मन की सारी बातें खुलकर कह सके।

कुल मिलाकर वह खुश तो थी, पर उसके मन में मायूसी ने घर बना लिया था।
हाँ, गाँव में उसकी एक सहेली दमयंती अवश्य थी, जो कभी-कभार उससे मिलने आती थी और उसका हाल-चाल जान लेती थी।
उसी से वह दिल खोलकर बतियाती थी।

एक दिन सुवर्धन दो दिन के लिए गाँव आया। कुछ दिनों से भाग्यलक्ष्मी की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी।
उसे दिखाने के लिए जब गाँव के ही एक वैद्य को बुलाया गया, तो घर में खुशी की लहर दौड़ गई — हवेली में एक नया वारिस आने वाला था।

सही अंदाज़ा लगाया आपने…

भाग्यलक्ष्मी माँ बनने वाली थी।
जगदीश जी, सुवर्धन के साथ-साथ कमला जी भी बहुत खुश थीं।
इस खुशी ने सास-बहू के बीच जो दूरियाँ थीं, उन्हें कम कर दिया था। और सबसे ज़्यादा खुश थी भाग्यलक्ष्मी…

उसकी यह खुशी सिर्फ माँ बनने की नहीं थी, बल्कि उसके लिए आने वाली संतान उसकी अकेलेपन की साथी बनने वाली थी।
इस खुशी ने हवेली के माहौल को खुशनुमा बनाने के साथ ही एक शुभ कार्य और कर दिया था—
नन्हे मेहमान की खबर ने भाग्यलक्ष्मी के महीनों के प्रयास को कुछ ही दिनों में सफल कर दिया था।

अब सास कमला देवी अपनी नाराज़गी छोड़कर बहू और बच्चे की देखभाल में जुट गई थीं।
उनके स्वास्थ्य और उज्जवल भविष्य की दिन-रात मंगल कामना करती रहतीं।
जो थोड़ी-बहुत शिकायत उनके मन में थी, इस खुशी ने उसे भी समाप्त कर दिया था।
भाग्यलक्ष्मी को अपनी संतान किसी वरदान से कम नहीं लग रही थी।

आख़िरकार वह घड़ी भी आ गई जब भाग्यलक्ष्मी ने एक सुंदर से पुत्र को जन्म दिया — और उसका नाम रखा आनंद।
एक बार फिर से पूरी हवेली हँसी-ठिठोली से गूँज उठी।
पूरा गाँव हवेली की प्यारी बहू की खुशी में झूम उठा था।

इसी खुशी और उल्लास की वजह से उसने अपने पुत्र का नाम आनंद रखा, जिसे सभी परिवारजनों ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
अपने पुत्र आनंद को भाग्यलक्ष्मी एक पल के लिए भी नहीं छोड़ती थी।
जान से भी ज़्यादा चाहने लगी थी वह उसे।
अब सुवर्धन के महीनों तक शहर में रहने पर भी भाग्यलक्ष्मी को ज़्यादा परेशानी या अकेलापन महसूस नहीं होता था।
दिन-रात वह अपने बेटे के कामों और उसकी बालक्रियाओं में उलझी रहती थी।
समय बीतता गया और नन्हा आनंद अब पाँच महीने का हो गया था।

सब कुछ बड़े ही खुशी-खुशी और आनंदपूर्वक चल रहा था।
पर क्या यह समय ऐसा ही रहने वाला था? शायद नहीं…!
नियति अपना खेल दिखाने वाली थी।

एक तूफ़ान आने वाला था — ऐसा तूफ़ान जो एक हँसते-खेलते परिवार को अपनी चपेट में लेने वाला था।
एक क्रूर मज़ाक करने वाला था भाग्य उसके साथ, जिसका नाम ही था — भाग्यलक्ष्मी…!

एक दिन भाग्यलक्ष्मी को सहेली दमयंती से पता चला कि कोई पूजा होने वाली है, जिसके लिए महिलाएँ गाँव की नदी से घड़े में जल भरकर लाती हैं और मंदिर जाकर पूजा करती हैं।
भाग्यलक्ष्मी ने भी अपनी सास कमला देवी से इस पूजा को करने की इच्छा जताई।
कमला जी ने खुशी-खुशी उसे इजाज़त दे दी।

भाग्यलक्ष्मी अपने पुत्र आनंद को गोद में लेकर और सिर पर मिट्टी के घड़े में जल लेने अपनी सखी के साथ नदी की ओर चली।
नदी से जल भरकर वह लौट ही रही थी कि अचानक…

उसके कदम जहाँ थे, वहीं रुक गए।
उसकी सखी दमयंती अपनी ही रौ में बातें करती चली जा रही थी।
थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर जब उसे यह आभास हुआ कि वह अकेली आ रही है, भाग्यलक्ष्मी उसके साथ नहीं है — तो वह पीछे मुड़ी।
और उसकी साँसें अटक गईं।

दमयंती के होश उड़ गए।
उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि जो वह देख रही है, वह सच है।

अपनी सखी को ऐसी हालत में उसने पहले कभी नहीं देखा था।
यह क्या हो रहा था उसके साथ?
वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे…
डर के मारे उसकी आवाज़ गले में ही अटक कर रह गई थी…

भाग्यलक्ष्मी का सिर आसमान की ओर, हाथ हवा में और उंगलियाँ उल्टी मुड़ी हुई थीं…
आँखों की पुतलियाँ गोल-गोल घूम रही थीं…
और वह ज़ोर-ज़ोर से मुँह खोलकर साँस ले रही थी…!

उसे ऐसी स्थिति में देख आसपास के सारे लोग आश्चर्यचकित रह गए।
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए…
करीब पाँच मिनट तक यह सिलसिला चलता रहा।

सिर पर रखा मटका नीचे गिरकर टूट चुका था, और भाग्यलक्ष्मी की पकड़ अपने पुत्र पर इतनी कस गई थी कि उसका पुत्र भी परेशान होकर रोने लगा।
शायद उसी की आवाज़ से भाग्यलक्ष्मी की तंद्रा टूटी।

वह पहले की भाँति सामान्य हो गई और अपने पुत्र को चुप कराने लगी।
उसे याद ही नहीं था कि उसके साथ क्या हुआ था।

उसने देखा कि घड़ा तो फूट चुका है और लोग उसे बड़े अचंभित नज़रों से देख रहे हैं।
पर किसी ने उसे कुछ कहा नहीं…
आख़िर कोई बताता भी तो क्या — कि उसके साथ क्या हुआ था…

उसकी सहेली ने स्थिति को संभालते हुए भाग्यलक्ष्मी का हाथ पकड़ा और कहा —
“अरे, मिट्टी का घड़ा था। आनंद रो रहा था तो लड़खड़ाकर तेरे सिर से गिर गया और फूट गया। चल, हम दूसरा घड़ा लेकर आते हैं और मंदिर जाकर पूजा करते हैं।”
उस दिन वह बात वहीं खत्म हो गई।

दो दिन बाद उसका पति सुवर्धन आने वाला था।
कमला जी ने अपनी बहू भाग्यलक्ष्मी से कुछ पकवान बनाने को कहा था, जिन्हें बनाने में वह रसोई में व्यस्त थी।
साथ ही वह कमरे में जाकर बार-बार अपने पुत्र का भी ध्यान रख रही थी।

भाग्यलक्ष्मी को अब हर थोड़ी देर में अपने पुत्र को देखने की आदत हो गई थी।

अचानक रसोईघर से कमला जी को जलने की गंध आई, तो वह घबरा कर जल्दी-जल्दी रसोई की ओर भागीं।
पर वहां की स्थिति देखकर कमला जी का चेहरा भय से पीला पड़ गया।

उन्होंने देखा कि भाग्यलक्ष्मी अजीब सी हरकतें कर रही थी—
ऐसी जैसी ना उन्होंने पहले कभी किसी को देखा, ना ही किसी से सुना था।

उसका सिर आसमान की ओर उठा हुआ था, मुँह खुला हुआ…
आँखों की पुतलियाँ गोल-गोल घूम रही थीं।
एक हाथ हवा में उठा हुआ और उंगलियाँ पीछे की ओर मुड़ी हुई थीं।

ऐसी स्थिति में भाग्यलक्ष्मी का चेहरा बहुत भयानक लग रहा था।

कमला जी सन्न रह गईं।
उन्होंने घबराकर अपने पति, जगदीश जी को बुलाया।
घबराहट के मारे उनके गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी।
बड़ी हिम्मत जुटाकर कमला जी उसे ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ देकर जगाने की चेष्टा करने लगीं—

“भाग्यलक्ष्मीऽऽऽ… भाग्यलक्ष्मीईईईईईईई…!”

ऐसी स्थिति में किसी को भी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
यह क्रम लगभग 5–7 मिनट तक चलता रहा।

जब भाग्यलक्ष्मी होश में आई, तो इस बार उसे आभास हो गया था कि कुछ तो गड़बड़ ज़रूर हुई है।
पर क्या? यह वह समझ नहीं पा रही थी।

उसने अपनी सास की ओर सवालिया नज़रों से देखा, तो कमला जी ने उल्टे उससे ही सवालों की झड़ी लगा दी—
“क्या तुम्हें कोई बीमारी थी?”
भाग्यलक्ष्मी ने ‘ना’ में उत्तर दिया।

“क्या तुम्हें कभी किसी तरह का कोई सदमा लगा हो?
किसी की कोई बात बहुत बुरी लगी है?”

“आखिर तुम्हारी ऐसी हालत अचानक से क्यों हुई बहू?”

कमला जी की आवाज़ में भाग्यलक्ष्मी के लिए चिंता, दुख, आश्चर्य — सारे भाव मिश्रित थे।

हाँ, बुरी तो लगती थीं कुछ बातें…
कमला जी का व्यवहार उसे आहत करता था।
पर इतना भी ज़्यादा नहीं कि जिससे उसकी ऐसी स्थिति हो जाए!

मन ही मन भाग्यलक्ष्मी सोच रही थी —
“आखिर ऐसा क्या हुआ? सब लोग अचानक इतनी परेशान क्यों हैं?”

उसने सवालों के जवाब में अपनी सास से ही प्रश्न कर डाला —
“आखिर हुआ क्या है? कोई मुझे बताए तो!”

तब कमला जी ने कहा —
“फिलहाल तुम रसोई का काम छोड़ो और जाकर आराम करो।
हम बाद में आराम से बैठकर इस बारे में बात करेंगे।”

बड़ी ही उलझन की स्थिति बनी हुई थी।
सवाल सबके मन में थे —
पर जवाब किसी के पास नहीं।

ऐसे सवाल, जिनका जवाब तो हर कोई जानना चाहता था —
पर ये कब, किससे और कैसे मिलेंगे, इसके बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं था।

रात में सुवर्धन भी हवेली आ चुका था।
भाग्यलक्ष्मी से पहले, कमला जी ने अपने पुत्र से इस बारे में बात करना ज़्यादा उचित समझा था।
जगदीश जी भी इस बात से सहमत थे।

सुवर्धन को इस पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि आखिर ऐसी कौन-सी बीमारी या परिस्थिति है, जिससे ऐसी अजीब हरकतें हो रही हैं।

दो दिन और बीत गए।

आज भाग्यलक्ष्मी अपने पुत्र को गोद में लेकर ही रसोई में खाना बना रही थी।
पता नहीं क्यों, आनंद बार-बार रो रहा था।

जब भी भाग्यलक्ष्मी अपने बेटे को गोद में लेकर रसोई में होती या काफी देर तक दिखाई नहीं देती, तो कमला जी चिंतित हो उठतीं।

भाग्यलक्ष्मी की हालत देखने के बाद, वह आनंद को उसके साथ अकेले छोड़ने में सहज नहीं हो पा रही थीं।

कमला जी सुवर्धन से कहने ही वाली थीं कि वह रसोई में जाकर भाग्यलक्ष्मी को देखे—तभी आनंद के रोने की आवाज़ ज़ोर-ज़ोर से आने लगी।

आवाज़ सुनकर दोनों मां-बेटा दौड़ते हुए रसोई की ओर भागे और…

जो दृश्य उन्होंने देखा, उसे देखकर सुवर्धन का कलेजा मुंह को आ गया।

एक बार फिर से भाग्यलक्ष्मी के साथ वही स्थिति उत्पन्न हो गई थी—
आंखों की पुतलियाँ गोल-गोल घूम रही थीं, सिर आसमान की ओर उठा था, मुँह खुला हुआ और उंगलियाँ टेढ़ी।

लेकिन…
इस बार वह ज़ोर-ज़ोर से सांस लेते हुए कुछ बोलने की कोशिश कर रही थी।

पर क्या? यह स्पष्ट नहीं हो रहा था।

ऐसा भयानक दृश्य देखकर कोई भी डर जाता।

सुवर्धन ने तुरंत अपने पुत्र को उसकी गोद से झपटते हुए उठा लिया और भाग्यलक्ष्मी को ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगा—

“भाग्यलक्ष्मी… भाग्यलक्ष्मी…!”

होश में आने पर भाग्यलक्ष्मी ने अपने पति से रोते हुए कहा—

“न जाने मुझे क्या हो रहा है। कुछ याद नहीं रहता। पर कुछ गड़बड़ ज़रूर है।”

वह उसके सामने हाथ जोड़कर कहने लगी—

“इस बार मुझे सच-सच बता दो। कोई भी कुछ नहीं बताता। आखिर मेरे साथ क्या होता है?”

तब सुवर्धन ने उसे अब तक की सारी बातें विस्तार से बताईं।

यह सुनकर भाग्यलक्ष्मी बहुत परेशान हो गई।

अब वह आनंद को कभी भी अकेले में अपने साथ नहीं रखती थी।
जिस बेटे को वह जान से भी ज़्यादा चाहती थी, जिसके बिना एक पल भी नहीं रह पाती थी—
आज उसे गोद में लेने से भी डरने लगी थी।

उसे डर था कि कहीं फिर से उसे वैसा दौरा पड़ गया, तो उसके बेटे को कोई नुकसान न हो जाए।

गांव के वैद्य को बुलाकर दिखाया गया, लेकिन वैद्य ने कहा कि वह पूरी तरह स्वस्थ है।
कोई बीमारी है ही नहीं, तो उसका इलाज भी कैसे हो?

सुवर्धन ने कुछ समय के लिए शहर जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया।

इस घटना को बीते अब 15–20 दिन हो चुके थे।
इन दिनों में भाग्यलक्ष्मी पूरी तरह सामान्य थी।

जगदीश जी ने अपने पुत्र से कहा—

“बहू अब ठीक है। तुम चाहो तो शहर जा सकते हो।”

पिताजी की बात सुनकर सुवर्धन ने अगले दिन सुबह शहर जाने की तैयारी शुरू कर दी।

कमरे में भाग्यलक्ष्मी उसके कपड़े और ज़रूरत का सामान रख रही थी, तभी अचानक…

एक बार फिर वही स्थिति दोहराई गई।

लेकिन इस बार…
इस बार भाग्यलक्ष्मी जो कुछ कह रही थी, वह साफ-साफ सुनाई दे रहा था।

उसके शब्द सुनकर सुवर्धन के होश उड़ गए।

इस बार उसने भाग्यलक्ष्मी को जगाया नहीं।
बल्कि खुद ही कुछ देर के लिए बेहोशी जैसी हालत में पहुंच गया।

सुवर्धन के कमरे से अजीब-सी आवाज़ें सुनकर कमला जी और जगदीश जी दौड़ते हुए कमरे की तरफ भागे।
लेकिन दरवाज़े के पास ही उनके कदम रुक गए।

जगदीश जी ने अपने बेटे को हिलाकर होश में लाने की कोशिश की—

“सुवर्धनऽऽ… बेटे होश में आओ… क्या हुआ?”

भाग्यलक्ष्मी बेहोश पड़ी थी।
कमला जी उसके हाथ-पैर सीधे कर रही थीं।

होश में आते ही सुवर्धन अपने पिता से लिपट गया और छोटे बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा—

“पिताजी! भाग्यलक्ष्मी को बचा लीजिए… मैं उसके बिना जी नहीं पाऊंगा। आनंद का क्या होगा? पिताजी, कुछ कीजिए!”

“हां-हां बेटा, ठीक है… पर हुआ क्या है? पहले ये तो बताओ! कैसी आवाज़ें आ रही थीं कमरे से?”

“पिताजी… भाग्यलक्ष्मी बोल रही थी, पर वो… वो भाग्यलक्ष्मी नहीं थी!”

“क्या कह रहे हो तुम? कहीं उसकी हालत देखकर तुम बौरा तो नहीं गए?”

“ये आप क्या कह रहे हैं? अपने ही बेटे के बारे में ऐसी बातें!”
कमला जी ने परेशान होकर पति पर खीझते हुए कहा—
“पहले भाग्यलक्ष्मी को होश में लाने की कोशिश कीजिए। बाकी बातें बाद में देखेंगे।”

सभी लोग मिलकर भाग्यलक्ष्मी को होश में लाने लगे।

होश में आते ही भाग्यलक्ष्मी का पहला सवाल था—

“मुझे बताओ ना, क्या हुआ?”

“भाग्यलक्ष्मी, इस बार तुम कुछ बोल रही थीं,” सुवर्धन ने कहा।

“अच्छा? क्या बोल रही थी मैं? कुछ गलत तो नहीं कह दिया?”

“किसी और को नहीं, तुम खुद के बारे में बोल रही थीं।”

“अच्छा! फिर बताओ ना… क्या पता चला? मेरी ऐसी हालत क्यों हो जाती है?”

“मैं तुम्हें कैसे बताऊं? मेरी हिम्मत नहीं हो रही… पर मजबूरी है, बताना तो पड़ेगा ही।”

“भाग्यलक्ष्मी, तुम… तुम…”
सुवर्धन की आवाज़ अटक रही थी। उसकी ज़ुबान लड़खड़ा रही थी।
आख़िर कैसे बोले अपनी प्राण से भी प्यारी पत्नी के बारे में ऐसी बातें, जो वह सपने में भी नहीं सोच सकता था?

“बताइए ना! बताइए!! आखिर क्या कहा मैंने?”

“भाग्यलक्ष्मी… तुम कह रही थीं कि… आज से एक हफ्ते के बाद तुम्हारी मौत हो जाएगी!”

इतना कहते ही सुवर्धन ज़मीन पर धम्म से बैठ गया और सिर दोनों हाथों में थाम लिया।

“मैं क्या करूं? कैसे बचाऊं तुम्हें! मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा… कौन-सी पूजा करूं? किस डॉक्टर को बुलाऊं? मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा…”

सुवर्धन ने अपने शहर जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया था।
अब वह शहर तभी जाएगा, जब भाग्यलक्ष्मी पूरी तरह ठीक हो जाएगी।

सब लोगों ने मिलकर फैसला किया कि भाग्यलक्ष्मी का इस एक हफ्ते तक पूरा ध्यान रखा जाएगा।

भाग्यलक्ष्मी ने भी वादा किया कि वह इस बात का पूरा ख्याल रखेगी कि उससे कोई छोटी-सी भी भूल न हो।

एक हफ्ते तक उसे घर के किसी भी काम को करने से मना कर दिया गया।
यहां तक कि वह अपने कमरे से भी सिर्फ ज़रूरत के मुताबिक़ ही बाहर निकलती थी।

पर इन सबके बीच एक चीज़ थी जो उसे भीतर से दुखी कर रही थी—अपने पुत्र से दूरी।
पर डर के कारण वह अपनी ममता को समझा रही थी।

आखिरकार, हफ्ते का वह आखिरी दिन भी आ गया, जिस दिन भाग्यलक्ष्मी ने अपनी मौत की भविष्यवाणी की थी।

सुबह से ही सभी लोग उसके कमरे में पहुंच चुके थे।
सभी ने कहा कि आज वह अपने कमरे से भी बाहर नहीं निकलेगी।

सुबह से दोपहर हुई, और दोपहर से शाम होने को आई।
घरवालों के मन में जो संशय था, वह धीरे-धीरे दूर होने लगा।

अब वे निश्चित होने लगे कि दिन तो समाप्त होने को है, सब कुछ सामान्य रहा।
भाग्यलक्ष्मी को अब कुछ नहीं हो सकता…

भाग्यलक्ष्मी भी थोड़ी राहत महसूस कर रही थी।
वह टहलने के लिए घर की छत पर चली गई।

छत पर टहलते हुए उसे नीचे झांकने का मन हुआ।
जैसे ही उसने नीचे देखा, अपनी सहेली दमयंती को जाते हुए देखा।

भाग्यलक्ष्मी ने उसे आवाज़ देकर रोक लिया और बड़ी खुशी के साथ लगभग दौड़ती हुई छत से नीचे भागी।
वह सीढ़ियों से उतरकर हवेली के मुख्य द्वार तक पहुंच गई और अपनी सहेली से बातें करने लगी।

…तभी अचानक…

बातें करते-करते ही वह पाषाण सी हो गई।

दमयंती ने उसे पकड़ा और हिलाया…
पर वह हिल नहीं रही थी।

उसका शरीर बहुत भारी लगने लगा, मानो कोई पत्थर की मूरत हो।
दमयंती ने बड़ी मुश्किल से उसे ज़मीन पर लिटाया।

उसे ऐसी हालत में देखकर वह घबरा गई।
चीखने और रोने लगी।

चिल्ला-चिल्लाकर सबको बुलाने लगी।

आवाज़ सुनकर सुवर्धन और बाकी परिवार दरवाज़े की ओर भागे।
भाग्यलक्ष्मी को यूं पड़ा देख सभी की रूह कांप उठी।

जगदीश जी ने तुरंत गांव के वैद्य को बुलवाया।
वैद्य जी ने भाग्यलक्ष्मी की अच्छे से जांच की और…

उसे मृत घोषित कर दिया।

सुवर्धन यह मानने को तैयार ही नहीं था—
कि अभी तक बिल्कुल स्वस्थ दिखने वाली उसकी पत्नी अब मर चुकी है।

उसे उसकी भविष्यवाणी याद आ गई।
अब तक जो बात उसे एक मज़ाक या भ्रम लगती थी—
आज वह सच लगने लगी थी।

दिमाग जिसे स्वीकार करने को कह रहा था,
दिल उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था।

क्या सच में कोई अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी कर सकता है?
सुवर्धन के मन में, दिमाग में, हज़ारों सवाल उठ रहे थे।

वह खुद भी एकदम निश्प्राण-सा हो चुका था।
लोगों ने उसे ढाढ़स बंधाया कि— “यह तो नियति का खेल है…”

कल तक जहां हंसी-ठिठोली थी, आज उसी हवेली में मरघट-सा सन्नाटा पसरा था।

कमला जी की सहायता के लिए गांव की महिलाएं आगे आईं।
भाग्यलक्ष्मी की अंतिम क्रिया की तैयारियों में वे लग गईं—
उसे नहलाना, कपड़े बदलना, और अंतिम श्रृंगार करना…

भाग्यलक्ष्मी के शरीर पर हल्दी का लेप लगाया जा रहा था।
सभी औरतें भारी मन से यह क्रिया कर रही थीं…

…कि तभी अचानक…

एक स्त्री चीखती हुई हवेली के आंगन से बाहर की ओर भागी…

“असंभव…! अविश्वसनीय…!”

उसका चेहरा भय से पीला पड़ गया था।
आंखें भय और आश्चर्य से फैल चुकी थीं।

बाहर आते-आते वह मूर्छित होकर ज़मीन पर गिर गई।

सभी का ध्यान बरबस ही उस स्त्री की ओर गया।

“यह अचानक क्या हुआ?”
“और… अब क्या होने वाला है?”

क्या वास्तव में भाग्यलक्ष्मी के जीवन का अंत हो चुका था…?
या…

अब शुरू होने वाली थी कोई नई कहानी…?

या फिर…

अब खुलने वाला था कोई पुराना रहस्य…?

लेखिका – 2 ( कृष्णा विवेक)

भाग्यलक्ष्मी की मृत्यु ने सबको हतप्रभ कर दिया था।
आख़िर कैसे कोई अपनी मौत की भविष्यवाणी कर सकता है!
आश्चर्य की बात यह थी कि वह भविष्यवाणी सच भी हो गई।

घर में मरघट-सा सन्नाटा पसरा हुआ था।
भाग्यलक्ष्मी की देह को अंतिम विदाई देने की तैयारियाँ चल रही थीं,
कि अचानक एक स्त्री घर के अंदर से चीखती हुई बाहर आई—
जहाँ लगभग पूरा गांव मौजूद था।

सुवर्धन एक तरफ गमगीन बैठा था।
इतने दिनों की जद्दोजहद मानो उसकी जीवनसंगिनी के साथ थम-सी गई थी।

सबके पूछने पर वह डरते हुए बस इतना ही कह पाई और बेहोश हो गई—
“अ… असंभव! भाग्य… भाग्यलक्ष्मी…”

इतने में एक और स्त्री हड़बड़ी में भागती हुई बाहर आई।
फिर उसके पीछे एक तीसरी स्त्री भी बाहर निकली।
वहाँ खड़े लोग अचंभित हो उन्हें देख खुसुर-पुसुर करने लगे।

सुवर्धन ने आगे बढ़कर पूछा, तो दूसरी स्त्री बोली—
“वो… भाग्यलक्ष्मी ने आँखें खोलीं…”
तभी तीसरी स्त्री बोली—
“मैं… मैं देह पर हल्दी लगा रही थी, तभी वो हिली।
मेरा मतलब… भाग्यलक्ष्मी हिली और फिर उठकर बैठ गई!”

इतना सुनते ही सुवर्धन भागते हुए उस कमरे में गया जहाँ भाग्यलक्ष्मी की देह रखी गई थी।
अंदर पहुँचते ही उसने देखा—वो खड़ी थी
और सभी को अजीब नजरों से देख रही थी।

सुवर्धन ने दौड़ते हुए उसे अपनी बाँहों में भर लिया।

क्षण भर भी ना हुआ था कि भाग्यलक्ष्मी ने उसे स्वयं से दूर धकेलते हुए तेज़ आवाज़ में कहा—
“यह क्या बात हुई! आपको गैर स्त्री के संग यह हरकत करते समय पल भर भी लज्जा नहीं आई?
दूर हटिए मुझसे! और आइंदा ऐसा करने की सोचिएगा भी मत!”

सुवर्धन ठगा-सा उसे देखता रह गया।
उसकी पत्नी उसे गैर पुरुष कह रही थी!

अचानक भाग्यलक्ष्मी का यह रूप देख सभी स्तब्ध थे,
किन्तु सुवर्धन के दिल पर तो जैसे किसी ने कटार चला दी थी।

हालात को देखते हुए वैद्य जी ने नाड़ी परिक्षण के बाद कहा—
“भाग्यलक्ष्मी जीवित है…
किन्तु शायद उन अजीब दौरों के कारण उसके दिमाग पर असर पड़ा है।
अतः उसे किसी भी बात के लिए जबरदस्ती ना की जाए।”

कुछ दिन पहले तक जहाँ एक भरा-पूरा परिवार खुशी-खुशी साथ था,
आज भाग्यलक्ष्मी की देह वहाँ होकर भी…
एक पत्नी, एक मां, एक बहू वहाँ मौजूद नहीं थी।

अब भाग्यलक्ष्मी स्वयं को ‘सौम्या’ बता रही थी।
न अपने पाँच महीने के बेटे से कोई लगाव…
न परिवार के किसी अन्य सदस्य से।

जिस बेटे को वह गोद से उतारती नहीं थी,
आज उसी की ओर देखती भी नहीं थी।

परिवार से लेकर अपनी सहेली दमयंती तक को पहचानने से साफ़ इनकार कर दिया था भाग्यलक्ष्मी ने।

वह घर में रहती, अपने तक सीमित रहती—
ना ज़्यादा किसी से बात, ना किसी से मेल-मिलाप।

कुछ महीने ऐसे ही बीत गए।
सुवर्धन ने भी मानो उसके शब्दों का मान रख लिया था।

हाँ, एक काम वह ज़रूर करती थी—
सौम्या अब चिट्ठियाँ लिखती और सुवर्धन को डाक में डालने को कहती।

शुरू में सुवर्धन को आश्चर्य हुआ—
जिस भाग्यलक्ष्मी ने कभी पढ़ाई तक नहीं की,
वो चिट्ठियाँ कैसे लिख सकती है?

किन्तु उसने इसे भी उस दौरे से जोड़ दिया।
“हो सकता है, उसी की वजह से मेरी पत्नी में यह बदलाव आया हो…”

जब भी वह उसे चिट्ठी डाक में डालने को कहती,
सुवर्धन बिना किसी सवाल के चुपचाप चला जाता।


कुछ महीनों बाद…

विदिशा गांव के बस स्टेशन पर एक व्यक्ति अभी-अभी शहर से आई बस से उतरा।
लगभग 55–56 वर्ष की आयु, साफ़-सुथरी दाढ़ी,
आँखों पर चश्मा, बाल लगभग सफेद,
चेहरे पर अनुभवों की गहरी लकीरें।

व्हाइट शर्ट और ब्लैक पैंट में वह उस दौर के गाँव में
एकदम अलग नज़र आ रहा था।

सबकी नज़रें उसी पर टिक गईं।
आखिर कोई ऐसा शख्स उनके गांव में क्यों आया होगा?

उन्होंने आगे बढ़कर एक राहगीर से पूछा—
“क्या इस गांव में कोई ऐसी स्त्री है,
जिसे कुछ अजीब तरीके से दौरे पड़ते हैं?”

एक पल को सब आश्चर्य से उसे देखने लगे।
फिर सोचा—हां, हो सकता है गांव से बाहर गया कोई व्यक्ति
उसके बारे में बात लेकर गया हो।

यह वो दौर था जब फोन नहीं हुआ करता था,
पत्र व्यवहार ही आम था,
और एक गांव की बात दूसरे गांव तक पहुँचने में समय लगता था।

उस शख्स—रजनीश जी—ने सबको हतप्रभ देखकर फिर पूछा—
“क्या आप में से कोई मुझे उनके घर पहुँचा सकता है?”

एक व्यक्ति आगे आया और सधी सी आवाज़ में बोला,
“चलिए, हम आपको लिए चलते हैं।”

कुछ देर बाद, जब जगदीश जी के घर का दरवाज़ा खटका, तो सुवर्धन ने जाकर दरवाज़ा खोला।
उसने असमंजस के भाव से पूछा,
“जी आप?”

रजनीश जी ने स्वयं का परिचय देते हुए कहा,
“नमस्कार, मैं रजनीश कांत, पास ही के संबलपुर गांव का रहने वाला हूं।
कुछ महीनों से मुझे यहां से कुछ चिट्ठियां मिल रही थीं,
इसलिए देखने चला आया।
माफ़ी चाहूंगा, अगर आपको किसी तरह की परेशानी हो, तो मैं लौट जाता हूं।”

जगदीश जी ने उन्हें रोकते हुए कहा,
“अरे! कैसी बातें कर रहे हैं आप?
घर आए मेहमान को हम ऐसा कैसे कह सकते हैं।
आप बैठिए, और बताइए क्या बात है।”

इतने में सुवर्धन ने कमला जी को आवाज़ लगाई,
“अम्मा, मेहमान आए हैं, तनिक चाय रख दीजिएगा।”

अंदर से कमला जी ने कुछ कहा नहीं,
लेकिन रसोई के दरवाज़े के खुलने की आवाज़ अवश्य आई।

उधर, रजनीश जी ने कहा,
“क्या आप उसे बुला सकते हैं, जिसने हमें ये पत्र लिखे?”

“जी, अवश्य। अभी बुला लाते हैं, कहते हुए सुवर्धन घर के अंदर चला गया।

थोड़ी देर बाद सौम्या भागती हुई बाहर आई और रजनीश जी से लिपट गई।
उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे।
सिसकते हुए उसने कहा—
“पापा!”

यह सुनते ही रजनीश जी के चेहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं।
उन्होंने कहा,
“माफ़ी चाहता हूं, पर मेरी बेटी आपके जैसी नहीं दिखती।”

सौम्या का गला भर आया—
“पापा, आप अपनी बेटी को नहीं पहचानते? अपनी सौम्या को नहीं पहचानते?
क्या हो गया है आपको?”

अब तक घर के लोग आश्चर्य से ये दृश्य देख रहे थे।
भाग्यलक्ष्मी, जो इतने महीनों से किसी को पहचानने से इनकार कर रही थी,
अचानक इस अजनबी व्यक्ति को अपना पिता कह रही थी!

रजनीश जी ने सबके मन के भाव समझते हुए दुखी स्वर में कहना शुरू किया—
**“सौम्या मेरी बेटी थी।
कुछ महीनों पहले उसके ससुराल से खबर आई कि उसने आत्महत्या कर ली।
मुझे कभी इस बात पर विश्वास नहीं हुआ।
मैं अपनी बेटी को अच्छे से जानता हूं—वो कभी जीवन से हार नहीं मान सकती थी।
वो बहुत बहादुर थी।
उसकी मौत की खबर ने मुझे भीतर से तोड़ दिया।
मैं उसे आख़िरी बार देख भी नहीं पाया।
मैं काम के सिलसिले में शहर से बाहर था,
और मेरे आने से पहले ही उसके ससुराल वालों ने उसका अंतिम संस्कार कर दिया।

मुझे आज भी संदेह है कि मेरी बेटी के साथ कुछ गलत हुआ है।
कुछ दिनों बाद, मुझे यहां से चिट्ठियां आने लगीं—
जो इन्होने भेजीं।
पर मुझे यह बात समझ नहीं आई कि मेरी बेटी की लिखावट में लिखी गई चिट्ठियां
उसके जाने के बाद कैसे आ सकती हैं!
इसलिए मैं देखने चला आया।”**

यह सब अपने पिता के मुंह से सुनकर सौम्या बिलखती हुई घुटनों पर आ गई।
वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।

अब रजनीश भी उसके सामने बैठ गए और सौम्या के कंधों को थाम लिया।
उनके स्पर्श से सौम्या खुद को रोक नहीं पाई और बिलखते हुए बोली—
“पापा, मैं ही सौम्या हूं, सच में!
और आप सही थे, आपकी बेटी ने आत्महत्या नहीं की थी।”

यह सुनते ही रजनीश जी ने सौम्या को पास ही रखे सोफे पर बिठाया
और पानी का गिलास देते हुए बोले,
“पहले तुम शांत हो जाओ।
मैं यहां बात करने के लिए ही आया हूं।
मैं अपने साथ कुछ लाया हूं। क्या तुम मेरी मदद करोगी?”

सौम्या ने स्वयं को संयत करते हुए गिलास पकड़ा और सिर हिला दिया।

रजनीश जी ने अपने साथ लाई हुई एक एल्बम निकाली और सौम्या को दिखाने लगे।
सौम्या एक-एक फोटो को देखती और पहचान बताती जा रही थी।
उसने अपनी मां, अपने पति रिवाज सिसोदिया,
और दोनों बच्चे सार्थक और शाश्वत को पहचान लिया था।

अंत में एक फोटो पर आकर सौम्या की नजरें जड़ हो गईं।

रजनीश जी ने पूछा,
“क्या हुआ बेटा?”

सौम्या ने आंसुओं का घूंट भरते हुए नाम लिया—
“साक्षी… मेरी ननद… इसने मुझे मार दिया था।”

और फिर सौम्या के सामने उस जीवन का आखिरी दिन तैरने लगा।


वह हर रोज़ की तरह बच्चों को पाठशाला के लिए तैयार कर रही थी,
रसोई में खाना पैक कर रही थी।
पीछे से साक्षी और कामिनी जी (सास) फिर से शुरू हो गई थीं—

“बड़ी आई पढ़ी-लिखी! थोड़ा दहेज ले आती तो हम भी कहीं मुंह दिखा पाते!
अब इसकी डिग्री का क्या अचार डाले?
मेरा भाई दो आदमियों में सर दिखाने लायक नहीं रहा…”

सौम्या रसोई से सब सुन रही थी,
पर यह रोज़ की बात थी।

उस ज़माने में, जहाँ लड़कियों के लिए स्कूल का नाम तक सपना था,
वहीं प्रोफेसर डॉ. रजनीश कांत ने अपनी इकलौती बेटी को ग्रेजुएट किया था।

शादी के समय भी दहेज लेने से इंकार इसलिए किया गया था
ताकि समाज को यह संदेश दिया जा सके कि
“हमारी बहू पढ़ी-लिखी है, और हम दहेज के खिलाफ़ हैं।”

पर कहते हैं, इंसान को बदलते देर नहीं लगती।
शादी के कुछ ही महीनों बाद सौम्या पर तानों की बौछार शुरू हो गई।
“कुछ लाई नहीं है, पढ़-लिख कर क्या किया?”

पति सहित पूरे परिवार में उसके खिलाफ़ एक शीतयुद्ध चलने लगा।

कामिनी जी बोलीं—
“क्यों री! कितनी बार कहा है,
मेरी बेटी जब उठे, तो सबसे पहले उसे चाय बनाकर दे दिया कर।
पर नहीं, चाय बनाने तो तेरा बाप आएगा ना!”

सौम्या को अब सहन नहीं हुआ।
अपने लिए कुछ भी सुन सकती थी, पर अपने पिता के लिए नहीं।

उसने पलटकर सबको ज़वाब दे दिया।
इस बात पर साक्षी हाथापाई पर उतर आई।
पता नहीं कहां से एक बड़ा पत्थर उठाकर लाईं और सौम्या के सिर पर दे मारा।

सौम्या चीखते हुए अपने सिर को थामे दीवार से जा लगी।
रक्त बहता जा रहा था।
घर पर उन तीनों के अलावा कोई नहीं था।

पत्थर की धार इतनी तेज़ थी कि खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था।
सौम्या के सामने अब सब कुछ धुंधला होने लगा।

उसे बस इतना याद है कि
साक्षी, कामिनी और रिवाज मिलकर
उसे एक बोरे में डाल रहे थे।

और फिर…
उसकी सांसें थम गईं।

सुवर्धन और घर के सभी लोग मानो उस कमरे में जम से गए थे।
आख़िर कैसे वे मान लें कि यह भाग्यलक्ष्मी नहीं, बल्कि सौम्या है?
जो लड़की कभी पाठशाला नहीं गई,
वो पत्र लिख रही थी।
जिसने कभी अपनी क्षेत्रीय भाषा के अलावा कोई भाषा नहीं बोली,
वह अब शुद्ध हिंदी और अंग्रेज़ी में बात कर रही थी!

वहीं, एक शख्स उठा और सौम्या को गले से लगा लिया—
जो लगातार अपने आँसू पोंछ रही थी।
“मुझे माफ कर दे, बेटा।
मैं तुझे बचा नहीं पाया।
काश… तेरी उस चिट्ठी का जवाब दे पाता, तुझे घर ले आता।
उससे पहले ही शहर से खत आया कि यूनिवर्सिटी में दंगे हुए हैं
और मुझे तुरंत आने का आदेश था।”

सौम्या ने स्वयं को संभालते हुए कहा—
“पापा, तब नहीं तो अब सही।
क्या आप नहीं चाहते कि आपकी बेटी को न्याय मिले?
और मुझे अपने बच्चों से भी मिलना है…
कृपया मुझे वहाँ ले चलिए।”

इतना सुनते ही सुवर्धन जैसे एक झटके से होश में आया,
और टूटी हुई आवाज़ में बोला—
“तो आप यहां से जाना चाहती हैं…
ठीक है।
आख़िर आप मेरी भाग्यलक्ष्मी तो नहीं हैं।
अब समय आ ही गया है इस देह से भी दूर जाने का।”

सौम्या रजनीश जी के साथ चली गई।
वह अपने बच्चों से मिली और
ससुराल वालों के खिलाफ़ मुक़दमा भी लड़ा।

गवाहियाँ सामने आईं—
कई लोगों ने उन तीनों को (साक्षी, कामिनी और रिवाज)
एक बोरा रेलवे ट्रैक की ओर ले जाते देखा था।
पोस्टमार्टम ना होने की वजह से मृत्यु का असली कारण तो सामने नहीं आ सका,
परंतु अंतिम संस्कार के समय सौम्या की देह को अखंड अवस्था में देखा गया,
जिससे यह सिद्ध हुआ कि उसे मारकर रेलवे ट्रैक पर रख दिया गया था।

अदालत ने सभी दोषियों को सजा सुनाई।
अब बच्चे भी सौम्या के पास थे।

किन्तु जीवन…?

बहुत सोचने के बाद सौम्या ने फैसला किया—
वह सुवर्धन के साथ ही रहेगी।

आखिर वही था, जिसने अपने प्रेम का मान रखा।
चाहता तो जबरदस्ती भी कर सकता था,
पर उसने सौम्या को छुआ तक नहीं।
वो न सिर्फ़ उसकी चिट्ठियाँ बिना सवाल के डाक में डालता रहा,
बल्कि भाग्यलक्ष्मी की देह और सौम्या की आत्मा—दोनों का आदर किया।


कुछ महीनों बाद…

सुवर्धन ने आवाज़ लगाई—
“अरे सुनती हो! बच्चों को बुला लाओ,
उनके नाना-नानी जी आ गए हैं।
और तुम जल्दी से खाने का इंतज़ाम करो।”

इतना सुनते ही जगदीश जी और कमला जी भी बाहर आए।
उन्होंने रजनीश जी और साधना जी का स्वागत किया।

थोड़ी देर में सार्थक और शाश्वत भागते हुए आए
और सीधे रजनीश जी के गले लग गए।
वहीं पीछे से आनंद घुटनों के बल चलता आया
और तोतली आवाज़ में बोला—
“नानी… ओदी।”

सभी एक साथ हँस पड़े।
साधना जी आनंद के पास आकर उसे गोदी में उठाया
और उसे खूब प्यार किया।


नोट:

कहते हैं, नाम इंसान की पहचान होता है और
कभी-कभी भाग्य की परछाई भी।

सच ही तो है—

भाग्यलक्ष्मी का भाग्य भी कुछ ऐसा ही था।
भरा-पूरा परिवार…
और फिर अचानक से एक ऐसी शक्ति ने सब कुछ
तहस-नहस कर दिया।
ममता से भरी एक माँ…
जो अपने दूधमुंहे बच्चे को छोड़कर
चली तो गई…
पर क्या सचमुच गई?

उसकी देह ने ही तो अपने बच्चे को जन्म दिया,
उसे गोद में खिलाया,
उसे माँ की छांव दी।

दूसरी ओर, सौम्या—
जिसने अपने सौम्य स्वभाव से
अपने परिवार, समाज और आत्म-सम्मान को साथ लेकर चलने की कोशिश की…
अपने ही घर में मारी गई।

यह भी तो भाग्य ही था।

पर जब उसे एक और जीवन मिला,
तो उसने अपने सौम्य रूप से हटकर
गुनहगारों को सजा दिलवाई।

आत्मा अजर–अमर होती है,
परंतु पूर्वजन्म की स्मृतियों के साथ किसी अन्य देह में प्रवेश करना
एक रहस्य है—
जो अब तक विज्ञान और तर्क की सीमा से परे है।

भाग्यलक्ष्मी के वे रहस्यमयी दौरे,
अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी,
और सौम्या का उस देह में प्रवेश…
ये सब आज भी अनुत्तरित प्रश्न हैं।

विज्ञान ने भले चांद तक पहुंच बना ली हो,
पर अब भी कुछ रहस्य ऐसे हैं
जो केवल आस्था और अनुभव से समझे जा सकते हैं।


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छवि सौजन्य:
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स्नेहा शुक्ला & कृष्णा विवेक

लेखिकाओं का परिचय :

स्नेहा शुक्ला
बिहार से संबंध रखने वाली स्नेहा शुक्ला अपनी भावनाओं को लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त करने में विश्वास रखती हैं। कहानियों और कविताओं से बचपन का गहरा नाता धीरे-धीरे जुनून में बदल गया।
समय-समय पर उनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। सामाजिक विषयों, पारिवारिक रिश्तों, प्रेम, रहस्य और हास्य जैसे हर ज़ोनर में लिखना उन्हें पसंद है। स्नेहा मानती हैं कि पहचान नाम से नहीं, कहानियों के असर से बनती है—और यही उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा है।

कृष्णा विवेक
राजस्थान से ताल्लुक रखने वाली कृष्णा विवेक, वाणिज्य में स्नातक होते हुए भी साहित्य के प्रति गहरी रुचि रखती हैं। उन्हें गद्य और पद्य दोनों में लिखना पसंद है और वे अपनी रचनात्मक उपस्थिति विभिन्न ऑनलाइन मंचों पर लगातार दर्ज करती रहती हैं।
उनकी कई रचनाएं गृहलक्ष्मी सहित अन्य प्रतिष्ठित मंचों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखन में समाज और प्रकृति से प्रेरणा पाकर वह संवेदनशील और विचारशील दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। कृष्णा का मानना है कि “एक अच्छा लेखक बनने से पहले एक अच्छा पाठक होना ज़रूरी है।”

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