कुछ उन बीते पलों की यादें, गर्मियाँ आते ही आज भी ताज़ा हो जाती हैं — जब बेसब्री से छुट्टियों का इंतज़ार रहता। अम्मा-बाबा के घर जाना, सब भाइयों-बहनों से मिलना, एक साथ खाना-पीना, शाम को छत पर पानी छिड़कना, मुंडेरों पर बैठ अमियाँ चूसना — सच में क्या दौर था।
शाम होते ही हम सब भाई-बहन एक-दूसरे को सहारा देकर छत पर चढ़ते, नीम की डालियाँ पकड़कर निम्बोरी तोड़ते और उसके मीठे-कड़वे रस को चूस-चूसकर आनंद लेते। उसमें भी एक अलग ही मज़ा आता। मोर को इतने पास से छत पर नाचते देखना — वाह, दिल खुश हो जाता। ये सब मज़े दिल्ली में कहाँ मिलते! ट्रेन में जाने की ख़ुशी — पूछो मत…।
घर पहुँचते ही सुबह का इंतज़ार होता। सब भाई-बहन सुबह पाँच बजे से एक-दूसरे को जगाने लगते। हम अपने जूते के फीते बाँध तैयार हो जाते। सब बच्चे बाबा के पीछे ऐसे हो लेते जैसे मुर्गी या बत्तख़ के पीछे उनके चूज़े।
रास्ते भर उस हल्के उजाले में लाल-सफ़ेद ककरोंदे की झाड़ियाँ और नागफनी की बाड़ से घिरे खेत, ताड़ के पेड़ — सब देख कर मन खुश हो जाता। सोचते — “कब नदी आएगी?”
नदी दिखते ही सड़क से नीचे ढलान पर उतरकर हम अपने जूते खोल नदी किनारे छपाक करते, रेत में सीपी-शंख ढूंढते और वहीं बैठ घरौंदे बनाकर उन्हें सीप से सजाते।
बाबा तरबूज़-खरबूज़ तुड़वाते। उनके खेतों के रखवाले चच्चा चाकू से काटकर सब बच्चों को फाँके पकड़ाते। सभी बच्चे अपने हिस्से के छिलके संभालकर रख लेते — ताकि लौटते वक्त पुल के ऊपर से नदी में फेंक सकें और कछुओं को खाते देख सकें।
सीप-शंख लेकर जब हम लौटते और उन्हें आले में रखते, तो अम्मा कहती, “बिटिया, जे हड्डी-वड्डी न बटोरो करो।” मिन्नी कहती, “अम्मा, जब वापस जायेंगे तब ले जायेंगे।” अम्मा मुस्कुरा देतीं। मिन्नी वापस दिल्ली आकर घर के बाग़ीचे के कोने में बटोर के लाया सारा ख़ज़ाना छिपा कर रख देती।
फिर एक दिन आम के बाग़ीचे में जाने का निश्चित होता। हम सभी बच्चे उत्साहित रहते। वहाँ जाकर जो मस्ती और धमाल करते, माली चच्चा भी हम बच्चों को देखकर खुश हो जाते। हम पेड़ों पर चढ़ते, पर आम हाथ की पहुँच से दूर होते। वे हमें तोड़-तोड़कर देते और हम उन्हें गमछे में बाँधकर घर ले आते।
दोपहर में आँगन में लगे नीम की छाँव तले हम सब बच्चे खेलते। उस पर डले झूले पर बारी-बारी से झूलते। उस पेड़ की हर चीज़ हमारे काम की होती — कभी उसकी छाल और पत्तियाँ घिसते, कभी निम्बोरी को पॉलिश की डिब्बी से बनाई तराज़ू में तौलते।
आज हर व्यक्ति की लालसा भौतिकता में बढ़ती जा रही है। रहने के लिए एक नहीं, कई घर चाहिए। वृक्ष कटते जा रहे हैं। खेतों में कंक्रीट के जंगल बोए जा रहे हैं।
आने वाले बच्चों को कहाँ नीम की छाया, बरगद के बूढ़े पेड़, पीपल और शीशम की फलियों का स्पर्श मिल पाएगा! सब कुछ सिर्फ किताबों के पन्नों और तस्वीरों में नज़र आएगा। जाने वो कभी इन्हें देख भी पाएँ?
Image Courtesy: by Arif Isomoto via Pixels
अपनी टिप्पणियाँ नीचे दें, क्योंकि वे मायने रखती हैं |
– मीनाक्षी जैन

लेखक परिचय: मीनाक्षी जैन
- जन्म स्थान – दिल्ली
- शिक्षा – दिल्ली
- योग्यता – क्लिनिकल साइकोलॉजी में ग्रेजुएशन
मीनाक्षी जैन ने विदेशी सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर भारत के दूर-दराज़ गांवों में पेंटोमाइम के माध्यम से शिक्षा से जुड़े कई कार्यक्रमों में भाग लिया। उन्होंने दूरदर्शन पर भी अपनी प्रस्तुतियाँ दीं।
इनकी लेखनी समाज, संस्कृति और मानवीय भावनाओं की गहरी समझ को उजागर करती है।
इनकी रचनाएँ न केवल पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक नए दृष्टिकोण से देखने का अवसर भी प्रदान करती हैं। इनके कार्यों में गहरी विचारशीलता और संवेदनशीलता झलकती है, जो पाठकों को प्रेरित करती है।