रात का तीसरा पहर था।
आर्या अपनी खिड़की के पास खड़ी थी। बाहर हल्की बारिश हो रही थी और हवा में अजीब-सी ठंडक थी। दूर मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, पर उसके भीतर एक बेचैनी थी — जैसे कुछ होने वाला हो।
अर्जुन को गए हुए तीन महीने हो चुके थे। कोई नहीं जानता था कि वो कहाँ है — न परिवार, न मित्र। बस एक पत्र था जो आर्या के नाम आया था। उस पर लिखा था —
“प्रेम अगर सच्चा है तो तुम मुझे ढूंढ लोगी। मैं तुम्हारे विश्वास की परख लूंगा।”
आर्या ने उस चिट्ठी को सौ बार पढ़ा होगा। हर बार उसकी आँखों से आँसू गिरते, पर दिल में एक अजीब यकीन था — अर्जुन ज़िंदा है।
उसे याद आया वो शाम, जब दोनों आखिरी बार साथ थे।
एक पुराना किला, हवा में शाम की नमी, और अर्जुन ने धीमे से कहा था —
“कभी मैं खो भी जाऊँ, तो मुझे ढूंढना…
क्योंकि मैं मरकर भी तुम्हारे इर्द-गिर्द रहूंगा।”
वो बातें तब रोमांटिक लगी थीं, अब रहस्य बन गई थीं।
अगली सुबह आर्या उसी किले की ओर निकली। रास्ते में उसे कई लोगों ने रोका —
“वहाँ अजीब चीज़ें होती हैं, मत जाओ।”
पर वो रुकी नहीं।
किले के भीतर कदम रखते ही उसे ठंड की लहर-सी महसूस हुई। दीवारों पर किसी ने लाल रंग से कुछ लिखा था —
“प्रेम — पागलपन है, या वंदनीय?”
आर्या के हाथ कांप गए।
वो शब्द पहचान सकती थी — ये अर्जुन की लिखावट थी।
दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसने टॉर्च निकाली और आगे बढ़ी।
किले के एक कोने में उसे अर्जुन का स्कार्फ़ मिला — वही जो उसने उसे आखिरी बार दिया था। पास में एक पुरानी डायरी थी।
डायरी के पन्नों पर अर्जुन की लिखावट थी —
“मैंने प्रेम को साधना समझा, पर दुनिया ने इसे अपराध कहा। अब मैं प्रेम की सच्चाई ढूंढने निकला हूँ। अगर मैं लौट न पाऊँ, तो मेरा नाम नहीं, मेरा भाव याद रखना।”
आर्या की आँखें भर आईं।
वो मुड़ी ही थी कि पीछे से किसी की आहट आई। उसने टॉर्च घुमाई —
कोई नहीं था।
पर ज़मीन पर ताज़े पदचिह्न बने थे, गीले और भारी।
“अर्जुन…?” उसने फुसफुसाया।
सिर्फ़ हवा चली, और एक धीमी आवाज़ गूंजी —
“तुम्हारा प्रेम अब मेरी मुक्ति है, आर्या…”
वो चौंक गई। दीवार पर अब नए शब्द उभर आए थे, मानो किसी ने अभी लिखे हों —
“सच्चा प्रेम न पागलपन होता है, न वंदनीय… वो बस रहस्य बनकर जीवित रहता है।”
आर्या बाहर आई।
किला अब शांत था। उसने पीछे मुड़कर देखा —
वो लाल अक्षर अब गायब थे।
लोग कहते हैं, उस रात के बाद आर्या कभी पहले जैसी नहीं रही।
वो अक्सर उसी किले में जाती थी, और मुस्कुराकर कहती —
“वो यहीं है… मेरे अर्जुन, मेरी पहेली।”
उस रात किसी ने आर्या की खिड़की पर अर्जुन की परछाईं देखी थी…
कोई नहीं जान पाया कि अर्जुन सच में मरा था या वो अब भी वहाँ था।
पर हर पूर्णिमा की रात, उस किले की दीवारों पर लाल अक्षरों में वही वाक्य उभर आता है —
“प्रेम — पागलपन या वंदनीय?” ❤️🔥
चित्र सौजन्य:
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– राव सुनीता राठौड़

लेखक परिचय:
राव सुनीता राठौड़ एक संवेदनशील लेखिका और रचनात्मक विचारक हैं, जिनके शब्द प्रेम, साहस और सकारात्मकता की शक्ति को गहराई से अभिव्यक्त करते हैं। उनकी लेखनी पाठकों के दिल को छूती है और विचारों में एक नई रोशनी जगाती है।