उन्नीस सौ इकहत्तर में मोना ने जब कॉलेज में दाख़िला लिया तो स्कूल से कॉलेज के माहौल में उसे एडजस्ट करने में वक़्त लगा। धीरे-धीरे नई दोस्त बनीं, एक साथ कॉलेज आना-जाना और एक ही क्लास व विषय भी एक से थे, तो आपस में खूब बनी।
मोना के एक नए सफर की शुरुआत हुई। यह ज़रूर था कि सबके शौक अलग-अलग थे — उन्होंने एन.सी.सी ली, तो उसने एन.एस.एस। दिल से क़रीब रहे पर राहें बदलीं और अपने-अपने सफर पर बढ़ चले।
कुछ वक़्त बीता और अब उसे कॉलेज में सब कुछ परिचित सा लगने लगा। मोना के अंदर समाज सेवा की भावना बसी थी, तभी तो उसने एन.एस.एस जॉइन किया। उसे कॉलेज में सिस्टर्स का साथ मिला और वह उनके साथ स्लम बस्तियों में जाकर सहयोग करने लगी। वह उनके साथ वृद्ध, निर्बल, असहाय व स्पेशल बच्चों के लिए काम कर आनंदित होती। कॉलेज से ही उसने ‘गांधी जी स्कूल ऑफ़ नॉन वायलेंस’ जॉइन कर लिया। वहाँ सबके साथ महीने में एक बार श्रमदान करने जाती। वहीं उसके कई विदेशी मित्र भी बने और फिर उनके साथ उसे बहुत सी जानकारी मिली और फिर दूसरे सफर पर चल निकली।
कॉलेज के हिंदी विभाग में थिएटर व कविता एसोसिएशन से जुड़ने के बाद और सामाजिक कार्यों में इतनी व्यस्त रही कि कॉलेज के तीन साल कब बीत गए, उसे पता ही न चला! आख़िरी साल में वह एक ऐसी संस्था से जुड़ गई जो भारत के भीतरी गाँवों में पिछड़ी जनजातियों के लिए कार्य करती थी। यहीं से मोना की नई राह पर एक और नए सफर की शुरुआत हुई। पहली बार घर से अकेली, नए मित्रों के साथ दूर-दराज के उन स्थानों पर निकल चली जहाँ उसे मनचाहा काम करने को मिला। उसने अभिनय के माध्यम से मातृत्व पोषण, पर्सनल हाईजीन व महिला सशक्तिकरण पर दिलोजान से काम किया। साल भर बाद कार्य समाप्त कर वह वापस घर लौट आई।
यह वह समय था जब माता-पिता बिटिया के ग्रेजुएशन के बाद उसके लिए वर की तलाश में लग जाते। मोना के साथ वही हुआ। उन्नीस सौ पिचहत्तर में उसके बीस वर्ष पूरे होते ही उसका विवाह कर दिया गया। अब अपने जीवन साथी का हाथ पकड़ वह नए जीवन की अंजानी राह पर अनजाने सफर पर बढ़ चली।
हर दो-चार साल में ट्रांसफर, फिर वही नए लोग, नई जगह — अपने को हर माहौल में ढालती चली गई। तीन साल में माँ बनी। उसे गुड्डा-गुड़िया जैसे खेलने को मिल गए। बचपन में उसका सबसे प्रिय खेल यही तो था।
अब कैसे उसके दिन-रात बीतते, उसे अपनी सुध ही न रहती। समय बीतता रहा, कब उसके गुड्डा-गुड़िया भी इतने बड़े हो गए कि पढ़-लिखकर अपनी राहें पकड़, अपने-अपने सफर पर निकल गए। दो जवान बच्चों की माँ कब बालों में मेहँदी लगाने लगी, उम्र कहाँ पहुँची, वह तब जान पाई।
मोना भी अपने जीवनसाथी के साथ ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो समय व्यतीत कर रही थी कि एक दिन उसका साथी भी हमेशा के लिए उसे छोड़ अपने सफर पर चल दिया।
अब न उसकी कोई मंज़िल रही, न कोई सफर।
Image Courtesy: https://www.pexels.com/@greece-china-news-81838757/
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– मीनाक्षी जैन

लेखक परिचय: मीनाक्षी जैन
- जन्म स्थान – दिल्ली
- शिक्षा – दिल्ली
- योग्यता – क्लिनिकल साइकोलॉजी में ग्रेजुएशन
मीनाक्षी जैन ने विदेशी सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर भारत के दूर-दराज़ गांवों में पेंटोमाइम के माध्यम से शिक्षा से जुड़े कई कार्यक्रमों में भाग लिया। उन्होंने दूरदर्शन पर भी अपनी प्रस्तुतियाँ दीं।
इनकी लेखनी समाज, संस्कृति और मानवीय भावनाओं की गहरी समझ को उजागर करती है।
इनकी रचनाएँ न केवल पाठकों को सोचने पर मजबूर करती हैं, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक नए दृष्टिकोण से देखने का अवसर भी प्रदान करती हैं। इनके कार्यों में गहरी विचारशीलता और संवेदनशीलता झलकती है, जो पाठकों को प्रेरित करती है।