छोटे से कस्बे में जन्म हुआ था स्वीटी का। वहां कोई भी रेलवे स्टेशन नहीं था। बहुत भोली थी स्वीटी। जब कोई उससे पूछता, “तुम रेल में बैठी हो क्या?”
तो स्वीटी भोलेपन से जवाब देती, “मैं तो बैलगाड़ी में बैठी हूँ।”
सभी उसके इस भोलेपन का बहुत मजाक उड़ाते, पर स्वीटी अपनी धुन में मगन रहती।
शाम को निकल जाती घूमने पगडंडियों पर अपनी सहेलियों के साथ। उस समय कुछ घरों में लोहे के दरवाजे लगे होते थे, तो छोटी-छोटी बालिकाएं आपस में बतियातीं कि यह रेल का फाटक है और आपस में ही खुश हो जातीं।
किसी ट्यूबवेल में मेंढक फुदकते देखकर जोर से चिल्ला उठती। कभी तितलियों को पकड़ना, कभी पेड़ों पर चढ़ना—यही स्वीटी के पसंदीदा खेल थे।
बचपन तक तो सब ठीक था, लेकिन अब यही बातें घरवालों को खटकने लगीं। पढ़ाई में भी स्वीटी सामान्य थी, इसलिए अब उसे बात-बात पर डांटा जाने लगा।
स्वीटी को समझ नहीं आता कि लोग अचानक उसे क्यों डांटने लगे हैं।
नौवीं कक्षा तक आते-आते तो पूरे घर का माहौल ही बदल गया। हर कोई ‘बोर्ड’ की धमकी देता।
घर की नजरों में स्वीटी “बूधम” (मूर्ख) घोषित हो चुकी थी।
साफ दिल वाली स्वीटी अब चिड़चिड़ी होने लगी थी। अब जैसी भाषा में कोई उससे बात करता, वैसा ही वह जवाब देती।
इस कारण वह सबकी आंखों की किरकिरी बनती जा रही थी। हाई स्कूल में पूरे साल उस पर पढ़ाई का प्रेशर बना रहा, जिससे उसका आत्मविश्वास और प्रतिभा दब सी गई।
बहुत मुश्किल से, औसत नंबरों से पास हो सकी स्वीटी।
मम्मी ने तो रिजल्ट देखकर गुस्से में उसे जमकर डांटा और मारा।
गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं। बुआ अपने बच्चों को लेकर उनके घर आई हुई थीं। सबके सामने मिली डांट ने स्वीटी को बहुत अपमानित महसूस कराया, लेकिन बुआ बहुत समझदार थीं।
उन्होंने स्वीटी को प्यार से चिपटा लिया। बुआ के दो बेटे थे, इसलिए स्वीटी से उन्हें बेहद लगाव था।
बुआ ने कहा कि वे स्वीटी को अपने साथ ले जाएंगी।
स्वीटी भी खुश थी कि वह बुआ के साथ उनके घर जाएगी। वहां जाकर उसे बहुत अच्छा लगा।
बुआ ने सबसे पहले घूमने का प्रोग्राम बनाया और रेलवे से सबकी रिज़र्वेशन टिकट कन्फर्म करवाई।
पहली बार रेल में बैठकर स्वीटी को ऐसा लगा मानो जन्नत मिल गई हो।
खिड़की के पास बैठकर रास्ते भर नज़ारों का आनंद लेती रही।
बुआ कुछ नाश्ता घर से लाई थीं और कुछ चीज़ें रेल में वेंडर्स से खरीदकर खाईं।
घूमने से भी ज्यादा स्वीटी को रेल का सफर पसंद आया।
बुआ उसकी भावनाएं अच्छे से समझती थीं। उन्होंने वहीं पर स्वीटी का एडमिशन करा दिया।
बुआ के प्यार और मार्गदर्शन से स्वीटी पढ़ाई में बेहतर होने लगी।
11वीं से ही उसकी स्थिति सुधरने लगी। 12वीं तक वह होशियार बच्चों में गिनी जाने लगी।
इंटर का रिजल्ट आया तो उसके बहुत अच्छे नंबर आए।
बुआ ने आगे की पढ़ाई के लिए उसे प्रयागराज (इलाहाबाद) भेज दिया, जो उस समय शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। मेरठ से संगम एक्सप्रेस सीधे इलाहाबाद जाती थी।
स्वीटी को अकेले सफर करने की आदत नहीं थी, लेकिन बुआ उसे ट्रेन में बिठाकर भेज देतीं और वह अपने नए सफर पर निकल पड़ती।
रेल यात्रा करते हुए, खिड़की से बाहर झांकते हुए, नज़ारों के साथ-साथ उसकी डायरी भी खुल जाती।
छोटी-छोटी कविताएं लिखने की शुरुआत भी यहीं से हुई थी।
इलाहाबाद में उसने सिविल सर्विसेज की तैयारी शुरू कर दी। ग्रेजुएशन के साथ-साथ कोचिंग भी की।
कुछ कठिनाइयां आईं, लेकिन उन्हें पार करते हुए वह दो प्रयासों तक पहुंची।
पर हर बार असफलता ने उसकी उम्मीदें तोड़ दीं।
एक दिन, निराशा से भरी, अपना सामान लेकर घर लौटने के लिए ट्रेन में चढ़ गई।
रास्ते में एक स्टेशन पर एक दिव्यांग चायवाले को देखा। उसने चाय तो नहीं पी, लेकिन पैसे देने चाहे। चायवाले ने विनम्रता से मना कर दिया।
उसकी खुद्दारी देखकर स्वीटी को झटका सा लगा।
उसे लगा कि इतनी सी असफलता पर हार मान लेना सही नहीं है। जब एक दिव्यांग व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से हार नहीं मान रहा, तो वह क्यों पीछे हटे?
स्वीटी अगले स्टेशन पर उतर गई, कुछ घंटे वहीं बैठी रही और बहुत सोचती रही।
आज उसे समझ आया कि उसके घरवाले गलत नहीं थे।
उसकी मन की गति रेल की रफ्तार से भी तेज थी।
उसने वापस इलाहाबाद लौटने का मन बना लिया।
वह लौटी… और जी-जान से मेहनत करने लगी।
चौथे प्रयास में उसे सफलता मिल गई।
आज स्वीटी रेल से कुछ बनकर लौट रही थी।
पर अब उसके सफर में कोई उलझन नहीं थी।
बल्कि संतोष था, आत्मशांति थी, और सपनों के पूरे होने की खुशी थी।
बचपन में बैलगाड़ी से शुरू हुआ सफर, अब रेल के सफर में उसकी पहचान दिला गया।
रेल का यही सफर था जिसने उसे उसकी साहित्यिक पहचान से भी जोड़ा।
जिसने बुझी हुई आशाओं को फिर से जीवित किया।
फिर वह ट्रेनिंग पर चली गई। और उसके बाद उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
रेल का यह सफर उसके जीवन का सबसे यादगार सफर बन गया—जो उसे दिला गया उसकी मंज़िल। उसकी पहचान।
Image Courtesy: By IndianGirlsWander via Pinterest
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– प्राची अग्रवाल

लेखिका परिचय:
लेखिका प्राची अग्रवाल, मूल नाम रिंकी अग्रवाल, उत्तर प्रदेश के खुर्जा, बुलंदशहर से हैं। शिक्षा में उन्होंने एम.ए., बी.एड., एम.एड. किया है और U.P. TET उत्तीर्ण है। वह एक स्वतंत्र लेखिका, संपादक और मंच संचालिका के रूप में सक्रिय हैं। साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा है। वह विश्व रिकॉर्ड होल्डर हैं और अब तक दो एकल कहानी संग्रह—”उदित आदित्य की रश्मियां” और “हरित हरिका” प्रकाशित कर चुकी हैं। साथ ही तीन पुस्तकों का संपादन भी कर चुकी हैं। उनकी कहानियाँ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रही हैं। इसके अतिरिक्त उनकी रचनाएं बेटियाँ इन, गृह लक्ष्मी जैसी लोकप्रिय ऑनलाइन वेबसाइट्स पर भी प्रकाशित हुई हैं। वह अब तक 80 से अधिक साझा संकलनों का हिस्सा बन चुकी हैं।