Join our Community!

Subscribe today to explore captivating stories, insightful articles, and creative blogs delivered straight to your inbox. Never miss out on fresh content and be part of a vibrant community of storytellers and readers. Sign up now and dive into the world of stories!


माँ की ममता और त्याग: एक बेटे की दिल छू लेने वाली भावनाएं

A family of farmers in Nagpur, India, harvesting bananas in a rural setting.

माँ

कुछ भी भुला नहीं हूं, मुझे सब कुछ याद है, बस अनजान होने का नाटक करता हूं। कैसे मेरी हर ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए आप अपनी ख्वाहिशों को मारते रहीं… मेरी स्कूल की फीस के लिए कई बार लोगों के आगे हाथ फैलाती रहीं। याद है मुझे, एक बार स्कूल की वर्दी के लिए जब पैसे नहीं थे, तो अकेले जंगल से आंवले तोड़कर लाई थीं और देसी वैद्य की दुकान में दो सौ रुपये में बेचे थे।

सुबह-सुबह जब लस्सी बनाती थीं, तो मैं आपके पास बैठ जाता था। जितना मखन निकलता, उसमें से आधा तो मैं ही खा जाता था, और आप गुस्सा होने की बजाय खुश होती थीं। आपका वो चूल्हे की लकड़ियों पर कड़छी में थोड़ा सरसों का तेल डालकर उसमें सूखा धनिया और मिर्च से दाल में तड़का लगाना… उसकी खुशबू अभी भी ज़ेहन में बसी है।

आज कितने भी पिज्ज़ा-बर्गर खा लूं, मगर उस दाल का स्वाद आज भी ज़ुबां पर है। आपके हाथ की बनी मक्के की रोटी और साग के आगे पनीर की सब्ज़ी भी फीकी लगती है। पापा से छुपाकर जो दो-पांच रुपये देती थीं, वो आज के लाखों रुपयों से कहीं ज्यादा थे — कितनी भी टॉफियां खा लें, खत्म ही नहीं होती थीं।

और वो जब कभी बहुत धूप होती थी, तो आप अपना दुपट्टा उतारकर मेरे सिर पर रख देती थीं। दीवाली-दशहरे पर जब पापा जलेबी लाते थे, तो अपने हिस्से की जलेबी चुपके से मेरे हाथ में पकड़ा देती थीं। याद है मुझे, एक बार जब किताबों के लिए पैसे नहीं थे और कहीं से उधार नहीं मिला, तो आपने अपनी बकरी बेच दी थी।

एक बात बताओ माँ — अब आप मुझ पर हक क्यों नहीं जतातीं? मेरी तरह किसी चीज़ के लिए ज़िद क्यों नहीं करतीं? मेरी तरह मेरी जेब में हाथ डालकर पैसे क्यों नहीं निकालतीं? मेरे घर में बेहिचक सीधा अंदर क्यों नहीं आतीं? कुछ मांगती क्यों नहीं? हमेशा घबराकर कुछ मांगती क्यों हो?

मुझे याद है, जब कभी मैं एक रोटी कम खाता था, तो आपको मेरी फिक्र हो जाती थी — और अब आप जानबूझकर कम खाती हैं ये सोचकर कि कोई कुछ बोल न दे। और ये जो रात को जब आपको खांसी आती है, तो आप खांसने से डरती क्यों हैं? क्या आपको लगता है कि हमारी नींद खराब होगी तो हम कुछ बोल देंगे?

मुझे याद है जब बचपन में मुझे काली खांसी हुई थी — मैं पूरी-पूरी रात खांसता था और आप रात को उठकर कभी हरड़ चूल्हे में भूनकर लाती थीं, कभी अदरक, तो कभी शहद चटाती थीं। मैं तो दिन में सो जाता था, और आप पूरा दिन-रात इसी फिक्र में रहती थीं कि मेरी खांसी कब ठीक होगी।

क्या अब आपका मुझ पर कोई हक नहीं रहा? क्या अब मैं पराया हो गया हूं? मैं तो आज भी वही बच्चा हूं… आज भी मेरा मन करता है कि मैं आपकी गोद में सिर रखकर सो जाऊं और आप मेरे सिर पर हाथ फेरती रहें।

मैं चाहता हूं कि आप मुझ पर हक जताएं, मुझसे कुछ मांगें नहीं — जो भी चाहिए, आदेश दें। मैं इतना बड़ा नहीं हुआ माँ, कि आपको मुझसे कुछ कहने के लिए सोचना पड़े। जो कुछ भी है, सब आपकी बदौलत है… सब कुछ आपका है, माँ।

– अमित रत्ता

चित्र सौजन्य: https://www.pexels.com/@equalstock/
अपनी टिप्पणियाँ नीचे दें, क्योंकि वे मायने रखती हैं
 |

लेखक परिचय : अमित रत्ता

अमित रत्ता, महाराणा प्रताप डिग्री कॉलेज, अंब से स्नातकोत्तर हैं और एक निजी व्यवसाय में संलग्न रहते हुए साहित्य सेवा में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। भावनाओं की गहराइयों को छू लेने वाले उनके लेखन ने न केवल पाठकों के दिलों को स्पर्श किया है, बल्कि उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सम्मानित भी किया गया है।

उनकी चर्चित कविताओं में “मेरी बेटी लौटा दो मुझे”, “कैसे उसको संस्कार सिखाऊं”, “अर्धांगिनी” और “जंगल की आग” जैसी रचनाएं शामिल हैं, जो सामाजिक सरोकारों और मानवीय संवेदनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं।

कहानियों की बात करें तो “घर की इज्जत”, “दो रोटी सम्मान के साथ”, “देवदासी – एक कलंक” तथा “अंतर्मन की टीस” जैसी रचनाएं समाज के यथार्थ को सजीव रूप में प्रस्तुत करती हैं।

उनकी प्रकाशित पुस्तकों में “जिंदगी की धूप-छांव”, “मतलबी रिश्ते” और “ढलती सांझ” प्रमुख हैं। इसके अलावा वे कई साझा संकलनों जैसे “बाल काव्य संग्रह”, “सरहद”, “पूनम की रात” और “शिक्षाप्रद लघु कथाएं” में भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं।

अमित रत्ता का लेखन जीवन के अनुभवों, मानवीय मूल्यों और सामाजिक सच्चाइयों का जीवंत दस्तावेज़ है।

Scroll to Top