मांँ
मांँ, तुम ईश्वर का रूप हो, मेरी गुरू हो, मेरी सखी-सहेली हो, प्रेरणा हो मेरी। तुम्हारी क्या संज्ञा दूं मैं? ऐसा तो कोई शब्द ही नहीं बना जो मांँ की व्याख्या कर सके।
कहते हैं, जब ईश्वर ने संसार रचा, तो उस संसार की देखभाल, प्यार और दुलार के लिए स्वयं धरती पर न आ सकने की सूरत में उसने अपनी कमी पूरी करने हेतु मांँ को जन्म दिया।
मेरी मां मेरे लिए पूरा संसार है, मांँ के बिना तो ये तन निष्प्राण है। हर छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी बात मांँ ही तो सिखाती है। पहला शब्द बोलना भी बच्चा मांँ से ही तो सीखता है। मांँ की आंखों से वह संसार देखता है।
मैंने भी, मांँ, तेरी आंखों में सारा जहान देखा है। अच्छे-बुरे की पहचान मांँ तुमसे ही सीखी है। दुनियादारी की शिक्षा मांँ, तुमने ही तो दी।
परिवार को किस तरह माला के मोती के जैसे एक सूत्र में बांध कर रखा जाता है, तुम्हें देखकर मांँ, मैंने ये समझा और जाना।
कभी बेवजह झुकना नहीं और गलती होने पर माफी मांग लेना भी तो गुनाह नहीं, और स्वाभिमान को मारकर जीना नहीं—ये बातें मांँ, आपकी आज भी मुझे याद हैं।
पराए दुःख में दुखी होना क्या होता है, ये मैंने मांँ, आपसे ही जाना।
ये बात तब की है जब मैं स्कूल पढ़ती थी। हमारी शांता बाई का बेटा बहुत बीमार था। आप उसे डॉक्टर के पास ले गईं और दवाई दिलवाई। उसके बाद वह खुद से ही दवाई ला रही थी। दरअसल, उसे टाइफाइड हुआ था। काफी दिन लग गए ठीक होने में।
जब वह ठीक हो गया, तो कुछ दिनों बाद आपने बाई से पूछा,
“शांता बाई, कैसा है अब तेरा बेटा? स्कूल जाने लगा है कि नहीं अभी?”
वो बोली, “नहीं मालकिन, कमजोरी इतनी आ गई कि उठना भी मुश्किल है। डॉक्टर कहते हैं अच्छी खुराक दो। कहां से लाएं अच्छी खुराक? पहले इलाज पर इतना खर्चा हो गया। शुक्र है, थोड़ी आपने मदद कर दी, वरना इलाज भी मुश्किल था।”
आपने उसी समय एक गिलास दूध और एक सेब उसे देकर कहा,
“कल से रोज़ एक गिलास दूध और फल मेरे से ले जाना अपने बेटे के लिए।”
वह कृतज्ञ सी बोली, “मालकिन, आप कितने बड़े दिल वाली हो। आपका एहसान मैं कैसे उतारूंगी?”
तब मैंने आपसे पूछा,
“मांँ, हम क्यों रोज़ दूध और फल देंगे? उसके पापा क्यों नहीं लाएंगे?”
तब आपने मुझे समझाया,
“बेटा, वो ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि इतना खर्च वहन कर सकें। ज़रूरतमंद की मदद करना ईश्वर की पूजा समान होता है। समझो, हम ईश्वर की पूजा कर रहे हैं।”
इस तरह एक सप्ताह बाद वह अपने बेटे को लेकर आई, जो स्वस्थ लग रहा था। दोनों मांँ-बेटा बहुत खुश थे कि आपकी मदद से वह अब पूर्णतः स्वस्थ है।
मांँ, मैंने कभी आपसे कहा नहीं। शादी के बाद भी बहुत मन किया कि एक बार आपसे कहूं या फिर ख़त लिखकर आपको बताऊं कि आपने जो कुछ भी अपनी बेटी को शिक्षा दी, वह उस पर पूरी तरह खरा उतरने की कोशिश करती है। मगर कभी मैं ऐसा कर न सकी।
मांँ, वैसे तो आपकी बहुत सी बातें मुझे याद हैं, लेकिन आपकी ये बात हर समय मेरे ज़ेहन में गूंजती है और मैं अक्सर ज़रूरतमंदों की मदद करती हूं। मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मैंने ईश्वर की पूजा की है।
आज जब मेरी बेटी मेरे नक्शे-कदम पर चलते हुए मुझे ख़त लिखकर ये अहसास दिलाना चाहती है कि वह भी मेरे ही नक्शे-कदम पर चल रही है, तो मेरा भी मन हुआ कि मैं भी आपको ख़त लिखकर अहसास दिलाऊं कि मैं आपके नक्शे-कदम पर चल रही हूं।
जानती हूं, ये ख़त आपको नहीं मिल सकता और न ही आप ये ख़त पढ़ सकती हैं, लेकिन कहते हैं ना कि मांँ बच्चों से कभी दूर नहीं होती, हर पल साथ रहती है अदृश्य रूप में।
इसलिए मुझे विश्वास है, आप भी मेरे आस-पास हैं और मेरा ये ख़त पढ़ रही हैं।
काश..! ये मन के ख़याल मैं भी मांँ को ख़त में लिख पाती।
आपकी लाडो
– प्रेम बजाज
Image Courtesy: https://www.pexels.com/@olly
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लेखक परिचय: प्रेम बजाज
प्रेम बजाज एक गृहणी और लेखक हैं, जिनकी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे गृहशोभा, सरिता, मुक्ता, मनोहर कहानियाँ और सरस सलिल में प्रकाशित हो चुकी हैं।
उनकी अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें दो काव्य संग्रह, एक कहानी संग्रह (भावों का संपुट), एक आलेख संग्रह (क्रिटिसिज़्म), एक हॉरर उपन्यास (शापित कन्या), एक प्रेम उपन्यास (My Silent Love) और एक नर्सरी राइम्स बुक (सुनहरा बचपन) शामिल हैं। प्रेम बजाज का लेखन पाठकों के दिलों को छूने की क्षमता रखता है और जीवन के विविध पहलुओं को गहरे और सशक्त तरीके से प्रस्तुत करता है।