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दि डार्क साइड ऑफ लाइफ़: अनाथ बंटी की दर्दनाक कहानी और इंसानियत की जीत

A young boy stands in the rain holding an umbrella in a village in Odisha, India.

बंटी का पाँच साल का नन्हा मन समझ नहीं पा रहा था माँ को क्या हुआ है। बस्ती के लोग मिलकर बंटी की माँ को बाँध रहे थे। कुछ महिलाएं छाती पीटकर रो रही थी और सारे लोग यही कह रहे थे कि, “माँ बेटे का दुनिया में कोई नहीं था, माँ तो चली गई अब इस नन्ही सी जान का क्या होगा?”
बंटी आँखों में असंख्य सवाल लिए शून्य में तक रहा था। पड़ोस वाली जुम्मन मौसी से बंटी ने पूछा,
“मौसी माँ को क्या हुआ? बोलती क्यूँ नहीं? और सब बाँध क्यूँ रहे है? माँ को मुँह पर चद्दर ओढ़कर सोना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। हटा दो न कपड़ा।”
नम आँखों से जुम्मन ने कहा, “बचवा तुम्हारी माँ अब कभी नहीं बोलेगी। वो चली गई भगवान जी के पास।”
नन्हे बंटी के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। झोंपड़ी के एक कोने में रोटी का डिब्बा पड़ा था वो उठाकर ले आया और खोलकर खाने लगा।
सामने वाली झोंपड़ी में रहता शराबी दगड़ू ने बंटी के हाथ से रोटी छीन ली और बंटी के हाथों में मटकी पकड़ाते आगे किया और बोला,
“चल रे भुख़्खड की औलाद पहले अपनी माँ को मुखाग्नि दे बाद में रोटी ठूसना।”
चार लोगों ने जैसे ही वंदना को कँधों पर उठाया उसी वक्त बंटी की ऊँगली से एक सुहानी गिरह ने हमेशा, हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया। सर पर छत की जगह नंगा आसमान था और पैर टिकाने के लिए ज़मीन। अब बंटी को अनाथ के उपनाम के साथ ठोकरे खाते ही जीना था।
राम नाम सत्य है की धुन बोलते अर्थी चलने लगी तो बंटी अपनी माँ से लिपट कर चित्कार कर उठा, “मत ले जाओ मेरी माँ को, माँ खाना दो न बहुत भूख लगी है।” जुम्मन ने बंटी को खींच लिया।
आज मानों आसमान भी रो रहा था। बंटी के चित्कार की चित्कार से जुगलबंदी करते ऐसी मेघगर्जना हुई मानों किसी गरीब की झोंपड़ी पर तड़ीत गिरी। बंटी की कैंसर ग्रस्त माँ वंदना आज बंटी को ज़ालिम दुनिया के हाथों सौंप कर अकेला छोड़ गई। बाप तो माँ-बेटे को छोड़ कर पहले ही किसी बाज़ारू औरत के चक्कर में चला गया था। वंदना घर-घर जाकर झाडू-पौंछा और बर्तन मांझ कर माँ-बेटे का गुज़ारा कर लेती थी।
अब पड़ोसियों में खुसर-फ़ुसर होने लगी। जुम्मन ने कहा,
“बंटी का क्या करें अब? कोई नहीं इस मासूम का, यतीम खाने भेज देते है। मेरे तो खुद रोटी के वांधे है वरना पाल लेती।”
बंटी नाम की बला कहीं अपने हिस्से न आ जाए ये सोचकर एक-एक करके सब सरक गए। बंटी अपनी माँ को ढूँढते इधर-उधर देख रहा था।
अंत में शराबी दगड़ू बोला,
“सालों तुम सब स्वार्थी हो। इंसानियत नाम की चीज़ ही नहीं, निकलो सब मैं पालूँगा। चल अनाथ की औलाद अब मेरी ऐश है। तू कमाकर खिलाएगा मुझे।” और बंटी को हाथ खींचकर ले गया।
दूसरे दिन दगड़ू बंटी को कसाई के पास ले गया और कुछ पैसे देकर बंटी के एक हाथ का सौदा कर दिया। बंटी की आँखों पर पट्टी बाँधकर एक हाथ में चॉकलेट थमा दी और दूसरे हाथ पर आरी चलवा दी। एक ही झटके में बंटी का पंजा हाथ की रगों से अलग हो गया। एक चित्कार के साथ बंटी बेहोश हो गया। एक पल के लिए कसाई का दिल भी दहल गया पर, पापी पेट की आग में भावनाएं भड़भड़ाती शांत हो गई। दगड़ू बंटी के कटे हाथ को देखकर खुश हो रहा था।
“कमाई का इससे बेहतर ज़रिया तो कोई हो ही नहीं सकता। बिठाता हूँ साले को सिद्धिविनायक मंदिर की चौखट पर, माँ कसम रोज़ एक हरी पत्ती छाप कर जरूर देगा।”
इंसानियत का जनाजा निकालकर एक शराबी ने साबित कर दिया कि कलयुग ने अपना चरण धरती पर धर लिया था। और बंटी के माथे पर ज़िन्दगी ने भिखारी शब्द छाप दिया। माँ की छत्रछाया में ज़िन्दगी की रंगीनियों के साथ खेल रहे बंटी की ज़िन्दगी अब वीरान और बेरंग हो गई थी। रात के अंधेरों में सिमटता, सिकुड़ता डर और दहशत के मारे आसपास अपनी माँ को न पाकर बिलखते हुए बंटी रो देता था लेकिन दगड़ू की चिलचिलाती, कड़ी आवाज़ सुनकर सर पर चद्दर ताने सो जाता था।
ज़िन्दगी का इतना कठोर रुप भी होता होगा ये उस नन्ही सी जान को समझ में ही नहीं आता था। सच में दगड़ू की चाल कामयाब हो रही थी। हाथ कटे बालक की वेदना देखकर लोगों के हाथ खुद-ब-खुद जेब के भीतर चले जाते थे और जो जितना हाथ में आता था बंटी का कटोरा छलका देते थे।
दगड़ू को मानों बंटी के नाम की लॉटरी लगी थी। दारु, चरस और जुआ खेलने में रममाण दगड़ू हर हद लाँघ जाता था। अब तो नशे की हालत में बंटी के साथ सृष्टि विरुद्ध का कृत्य करते बंटी का शारीरिक शोषण भी करने लगा था। नन्हा बालक कराह उठता था। बंटी की माँ की झोंपड़ी भी दगड़ू ने बेच दी। बन्टी का नन्हा सा मन किसी निर्णय के लिए बहुत छोटा था। ज़िन्दगी का एक भी पहलू समझ से बाहर था। इतनी बड़ी दुनिया में एक माँ का चेहरा दिन-रात आँखों में रमता रहता और दो छोटी सी आँखें हर चेहरे में अपनी माँ को ढूँढते उदास हो जाती।
समय की क्षितिज पर चलते बंटी आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रहा था। ज़िन्दगी की चट्टान से खुद को रगड़-रगड़ कर बंटी ने अपने आप को एक धारदार हथियार सा गढ़ लिया। आज पूरे पंद्रह साल का होने जा रहा था। दगड़ू दस साल से बंटी का शोषण करते ऐशो-आराम से ज़िन्दगी काट रहा था। आज बंटी का जन्मदिन था तो बंटी ने नये कपड़े पहने और हनुमान जी के मंदिर जाकर पूजा की और प्रसाद चढ़ाया। अपने लिए दुआ मांगी और घर आया।
दगड़ू ने सुबह-सुबह ही चिक्कार दारु पी रखी थी। बंटी को देखते ही दगडू के भीतर वासना का कीड़ा बिलबिलाने लगा। बंटी का हाथ पकड़ कर पास बिठाया और चूमने लगा। दारु की बदबू नासिका में जाते ही बंटी को उल्टी आने लगी तो उठ खड़ा हुआ और बाहर जाने लगा। पर दगड़ू का वहशीपन आज चरम पर था। लपक कर बंटी को पीछे से पकड़कर पलंग पर पटका और बंटी के उपर चढ़ गया। पर आज एक बेबस, लाचार बच्चा जवानी की दहलीज़ पर खड़ा इतना तो काबिल बन गया था कि खुद को बचाने की जद्दोजहद कर सकें। बंटी ने एक लात दगडू के पेट पर लगाते खुद को आज़ाद करवा लिया। आज मानों सालों सही प्रताड़ना बंटी के अंग-अंग में कराह उठी। दगड़ू का किया हुआ एक-एक ज़ुल्म याद आ रहा था। आँखों से अंगारे बरसाते बंटी ने रसोई के सामान के साथ पड़ी छुरी उठाई और दगड़ू के पेट में बेथाहाशा वार करने लगा, और घर से भाग निकला दौड़ते-दौड़ते न जानें कितनी दूर निकल गया पता ही नहीं चला। थकान और डर की वजह से बेहोश होकर गिर पड़ा। जब आँख खुली तो बंटी ने खुद को एक किन्नर के घर पर पाया।

जब बंटी की आँख खुली तो अपने आप को किसी अनजान घर में बिस्तर पर पाया। बंटी ने दिमाग पर ज़ोर दिया तो याद आया कि वो तो दगड़ू को मारकर भागा था। न जाने भागते-भागते वो कहाँ और कब गिर पड़ा उसे होश ही नहीं रहा। ये किसका घर है? बंटी ने आसपास नज़र की, घर तो था लेकिन घर में कोई भी घरेलु चीज़ दिखाई नहीं दी। महिलाओं के कपड़े इधर-उधर टंगे हुए थे और एक टेबल पर मैक अप का सामान और आईना पड़ा हुआ था। ये मैं कहाँ हूँ? यहाँ मुझे कौन लेकर आया होगा? सोचते हुए घबराकर बंटी झट से बिस्तर पर उठ बैठा। जिस हड़बड़ाहट में वो उठा था उसकी आवाज़ से बेड के साइड में कुर्सी पर‌ बैठी लड़की जाग उठी जिसकी अभी थोड़ी देर पहले ही आँख लगी थी। “ओए चिकने होश आ गया तुम्हें? हाए मेरी जान, कब से तुम्हारे होश में आने का इंतजार कर रही थी मैं, आजा मेरी जान, मेरे सीने से लगकर इस सीने में ठंड पहुंचा दे” कहते हुए उसे बाहों में लेने की जैसे ही कोशिश करती है बंटी घबराकर बेड के दूसरे कोने तक चला गया।
उसे दूर जाते देख हँसते हुए बोली, “चिकने ऐसे दूर-दूर क्यों भाग रहा है? रूक अभी तुझे जन्नत का नज़ारा दिखाती हूँ । आए-हाए.! अरी कांता, बिमला, शीला,‌ पारूल कहाँ मर गई सबकी सब? आओ री देखो तो लौंडे को होश‌ आ गया, लौंडे को होश आ गया”
सब की सब झट से दौड़ी आईं और आते‌ ही बंटी को चारों ओर से घेर लिया। कोई ताली बजा-बजाकर नाचता, कोई उसकी बलाएं लेता तो कोई उसे छूने की कोशिश करता। बंटी घबरा गया और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, “छोड़ दो मुझे, छोड़ दो मुझे, कोई भी मेरे पास मत आओ, मत आओ मेरे पास वरना तुम्हारा भी वही हश्र करूँगा जो मैंने दगड़ू का किया। मैं कह रहा हूँ हट जाओ दूर मुझसे, वरना पछ्ताओगे।”
अब तक दीदी ने भी उनका शोर सुन लिया था, वो भी आ गई।
“क्या हो रहा है यहाँ पर?” एक कड़कदार आवाज़ गूंजी। पूरे कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। सभी अपनी-अपनी जगह पर चुपचाप खड़ी हो गई।
“मैंने पूछा…. ये क्या शोर मचा रखा है?”
“दीदी लौंडे को होश आ गया” रानी बोली जो कि उस कमरे में निगरानी के लिए बैठाई गई थी।
“वो तो मैं देख रही हूँ, तुम सब क्यों उसे परेशान कर रही हो? जाओ सब अपना-अपना काम करो”
“जी दीदी” सभी शाइनी दीदी अर्थात उन सबकी गुरू की बात मानकर चुपचाप कमरे से बाहर चली गई।
इतने सारे लोग और अजीब से चेहरे वाले जो न तो पुरुष थे, न ही स्त्रियाँ, और पहनावे से स्त्रियाँ लग रही थी मगर आवाज़ से पुरुष थे। उन सबको देखकर बंटी घबराया हुआ था। बंटी को लगा कहीं ऐसा तो नहीं आसमान से गिरा खजूर पे अटका। बंटी बेड पर एक कोने में दुबक गया। शाइनी दीदी ने देखा कि लड़का बहुत सहमा हुआ है इसलिए उसने उस समय कुछ भी कहना या बात करना उचित नहीं समझा। वैसे भी रात के लगभग 11 बज चुके थे। दीदी ने बंटी के सिर पर हाथ फेरा और बोली,”घबराओ मत, यहाँ तुझे कोई डर नहीं है। मैं तेरे लिए कुछ खाने को भिजवाती हूँ खाकर सो जाना कल सुबह मिलते हैं।” कहकर दीदी चली गई और बंटी के लिए खाना भिजवा दिया। बंटी का मन न होते हुए भी उसने खाना खाया क्योंकि भूख की वजह से ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके शरीर में जान ही न हो।
अगले दिन सुबह दीदी नहा-धोकर, पूजा-पाठ करके हौले से उसका दरवाज़ा खोल कर देखती है कि वो सोया है या जाग गया है। दीदी दरवाज़े में से झांककर कर क्या देखती है। बंटी बिस्तर के एक छोर पर ऐसे दुबक कर बैठा था मानों उसे कोई ख़ौफ़ सता रहा हो। दीदी उस ओर चली गई जिस ओर बंटी दुबका और सहमा इस तरह बैठा था मानो सामने से कोई जल्लाद इस मेमने की गर्दन काटने आ रहा हो और ये मेमना मैं, मैं करके उससे खुद को हलाल न करने की प्रार्थना कर रहा हो। जैसे‌ ही दीदी उसकी तरफ गई वो झट से दूसरी ओर चला गया।
“चिकने घबरा मत… मैंने तुझे कहा था ना कि तुझे यहाँ कोई खतरा नहीं। इधर आ मेरे पास” और बेड पर चढ़कर उसे पकड़कर अपने साथ चिपका लिया। जैसे ही दीदी ने उसे अपने सीने से लगाया वो चिल्लाने लगा। “नहीं….नहीं……अब और नहीं, मेरे साथ मत करो फिर से, बहुत दुखता है, दर्द बर्दाश्त नहीं होता अब, और नहीं सहन कर सकता मैं। इससे अच्छा है मुझे मार डालो फिर मेरी लाश के साथ जो करना हो करते रहना” और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
” चुप….. चुप….बिल्कुल चुप……कुछ नहीं बोलोगे तुम समझे, एक शब्द भी नहीं।…… पहले मेरी बात सुनो…. मैं तुम्हारे साथ कुछ नहीं कर रही, कुछ भी नहीं। अरे ईश्वर ने मुझे कुछ करने लायक बनाया ही कहाँ है जो मैं किसी के साथ कुछ कर सकूँ? हाँ.. लेकिन तेरे साथ क्या हुआ मुझे ये सब जरूर जानना है और तू अभी जल्दी से मुझे अपनी सारी कहानी सुना”
बंटी डरा हुआ तो था, साथ में समझ नहीं आ रहा था कि वो कहाँ फंसा है और ये लोग उसके साथ क्या करेंगे। यहाँ से निकलने के आसार तो नज़र नहीं आ रहे इसलिए अब इन लोगों की बात मानने के सिवाय कोई चारा भी तो नहीं। इसलिए डरते हुए उसने शुरू से लेकर अब तक की सारी कहानी दीदी को सुना दी”
सुनते-सुनते दीदी की आंखों से गंगा-जमुना बहने लगी।
“आग लगे ऐसे मर्दों की जवानी को। इनसे तो हम हीजड़ें ही अच्छे है जो किसी को प्राकृतिक या अप्राकृतिक तकलीफ़ तो नहीं देते। न जाने कब ये दुनिया समझेगी कि कुदरत की बनाई सृष्टि के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। ये दुनिया हमें नामर्द कहती है, अरे.! असली नामर्द तो वो है जो तुम जैसे मासूमों के साथ अप्राकृतिक सेक्स करते है। नामर्द वो हैं जो मासूम बच्चों के हाथ-पाँव काटकर उनसे भीख मंगवाते हैं”
माना बंटी ने डरते-डरते अपनी कहानी दीदी को सुनाई थी मगर अब बंटी के अन्दर का डर खत्म हो चुका था वो दीदी के पास बड़े आराम से बैठा था। दीदी ने उसे गले लगाकर कहा, “तू चिंता मत कर, आज से मैं तेरी माँ हूँ और तू मेरा बेटा, आज से तू यहीं रहेगा। तूने दगड़ू के साथ जो किया वो सही किया। ऐसे लोगों का अन्त ऐसा ही होना चाहिए। तू बिल्कुल भी फ़िक्र मत कर, मैं तेरे साथ हूँ हूँ” दीदी के प्यार ने बंटी को भावुक कर दिया और वो दीदी के गले लगकर खूब रोया और रोते-रोते बोला, “मुझे दगड़ू जैसे हर शख़्स से बदला लेना है माँ और मुझ जैसे अनाथों का जीवन संवारना है”
“बिल्कुल हम दोनों मिलकर इन लोगों की तो ऐसी फाड़ेंगे कि साँस भी न ले सकें। मगर कहीं कोई ग़लत काम मत करना”
“नहीं माँ मैं कभी कोई ग़लत काम नहीं करूंगा। मेरी एक माँ तो इस बेदर्द जमाने में अकेला छोड़कर चली गई है माँ अब आप मुझे मत छोड़ देना”
“नहीं मेरे बच्चे…मैं तुझे कभी नहीं छोड़ूँगी। लेकिन तुझे मेरी एक बात माननी होगी। दगड़ू की मौत को लेकर पुलिस तुझे अवश्य ढूंढ रही होगी, इससे पहले पुलिस तुम पर भागने का आरोप लगाए तुम खुद ही सरेंडर कर दो”
“लेकिन पुलिस ने अगर मुझे फांसी दे दी तो?”
“हर केस में ऐसा नहीं होता, मैं हूँ ना, मैं सब संभाल लूंगी” शाइनी बंटी को लेकर पुलिस स्टेशन जाकर सारी बात बताती है। पुलिस तहकीकात करते हुए बस्ती वालों का बयान लेती है। सारे बस्ती वाले बंटी के पक्ष में बयान देते है। बंटी के ऊपर केस चला और बंटी जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश किया गया। बंटी नाबालिग होने की वजह से कैद की बजाय सुधार गृह में भेजने का फैसला सुनाया गया लेकिन शाइनी दीदी ने लेखित में बंटी की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की अपील की जिसे मानते हुए कोर्ट ने बंटी को दीदी के हाथों सौंप दिया। यूँ सेल्फ डिफेंस में किया गया कत्ल और दीदी की तरफदारी ने बंटी को बचा लिया।
अब बंटी उन मंगलामुखियों के घर शाइनी दीदी का बेटा बनकर रहने लगा। दीदी ने उसे हर काम में माहिर कर दिया चाहे वो गाड़ी चलाना हो, या बिजली से सम्बंधित मुरम्मत करना, सुधारना या पेंच इत्यादि लगाना हो या फिर एक हाथ के न होते हुए ही इतनी अच्छी ढोलक बजाना। लेकिन अब बंटी का केवल एक ही मकसद था… अपने जैसे उन अनाथ बच्चों को जिन्हें पकड़कर ले जाया जाता और हाथ-पैर काटकर भीख मंगवाईं जाती, उन्हें उस नर्क भरे जीवन से मुक्त कराकर जो छोटे हो उन्हें स्कूल में पढ़ाना तथा जो बड़े हो उन्हें किसी न किसी काम पर लगाना।
लेकिन हाँ एक काम और भी बंटी और मंगला मुखी दीदी करते वो उन भीख मांगने वाले बच्चों के सरगना को भी अवश्य पकड़ते ताकि वो किसी अन्य बच्चे का इस तरह से नाजायज़ फ़ायदा न उठाएं।
एक दिन बिल्लु नाम का दादा इसी तरह इन लोगों की पकड़ में आ गया। बंटी ने दो छोटे-छोटे मासूम बच्चों को एक चौराहे पे देखा जिसमें एक की आंखें नहीं थी और दूसरे की एक बाजू तथा टांग इस कदर टूटी हुई थी, मानो अष्टावक्र सा शरीर दिया हो ईश्वर ने। अर्थात बाजू तीन तरह से मुड़ी हुई तथा टांग की भी यही अवस्था थी। ये देखकर बंटी का खून खौल गया क्योंकि वो जानता था कि किस बेदर्दी से इस मासूम की बाँह और टांग को चोटिल करके तोड़ा गया होगा और कितने दिनों या महीनों तक इन लटकती हुई बाँह और टांग की असहनीय पीड़ा सहनी पड़ी होगी। बंटी ने दोनों बच्चों को जबरदस्ती से पकड़ कर (मानो किडनेप ही किया हो) घर लाया। दोनों बच्चे सहमे हुए। होंठ बंद मगर आंखों से झर-झर आंसू बहा रहे हैं।
“क्या नाम है तुम दोनों का?”
“आप हमें क्यों पकड़ कर लाएं हैं? हमें छोड़ दीजिए अगर शाम तक 500 रूपए जमा ना हुए तो हमारे दादा हमें मारेंगे” दोनों मासूम बच्चे रोते-बिलखते प्रार्थना करने लगे।
“मैं तुम्हें 500 नहीं एक हज़ार रूपए दूंगा लेकिन पहले तुम मेरी बात मानों और मेरे सवालों का जवाब दो”
“हज़ार रूपए का सुनकर दोनों बच्चे चुप हो गए, उनके चेहरे पर रौनक आ गई। “ठीक है साहब आप जो कहेंगे हम मानेंगे। पर आप पक्का हमें 1000 रूपए देंगे ना?”
“हाँ बिल्कुल दूंगा, अगर मेरे सारे सवालों का जवाब सही-सही दोगे तब। वरना एक रूपया भी नहीं”
“पूछिए क्या पूछना है?”
“सबसे पहले अपने नाम बताओ और ये बताओ कि ये तुम्हारी बाजू और टांग कैसे टूटी और इसकी आंखें जन्म से नहीं है या कोई और कहानी है?”
“ये मेरा दोस्त रामु और मैं कृष्णा, हम दोनों को एक दिन ये दादा आइसक्रीम देने के बहाने स्कूल से दूर ले गया और कुछ सुंघाकर बेहोश कर दिया। जब दोनों को दर्द होने लगा तब होश आया। दादा ने गर्म-गर्म लोहे की छड़ी लेकर रामु की आँख में डाल दी और लोहे की एक राड़ से मेरे हाथ और पैर पर खूब मारा। हम दोनों बहुत रोए, चिल्लाए, दर्द से तड़पते रहे लेकिन दादा ने न तो कोई दवाई दी न ही किसी को खाना-पानी देने दिया। हम दर्द से कभी बेहोश हो जाते, कभी जब होश आता फिर दर्द से चीखते थे लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। तीन दिन बाद हमें खाना-पीना दिया गया लेकिन दर्द की वजह से खाया नहीं जाता था। एक महीने बाद कुछ ठीक हुआ लेकिन हाथ-पैर टेढ़ा हो गया था। उसके बाद दादा ने हमें भीख मांगने भेज दिया जिस दिन कम पैसे मिलते उस दिन बहुत मार पड़ती है”
“अब ये बताओ अगर तुम्हें हज़ार रुपए मिलेंगे तो क्या करोगे?”
“आप किसी को बताना मत। दो सौ रूपए का हम दोनों एक-एक वड़ा-पाव खाएंगे, बहुत दिनों से कुछ अच्छा खाने को मन कर रहा था। बाकी आठ सौ दादा को देंगे जिससे दादा खुश होकर हमें पंखे के नीचे सोने देंगे”
“पंखे के नीचे… मतलब… पहले कहाँ सोते हो?”
“हम सब बिना पंखे वाले एक ही कमरे में सोते हैं। जो अच्छी कमाई करके लाते हैं उनको पंखे वाले कमरे में सोने दिया जाता है”
“इतनी तपती गर्मी में और वो भी बिना पंखे के ! कितने बच्चे हो तुम सब?”
“हम पंद्रह लड़के और चार लड़कियाँ हैं”
“लड़कियाँ…! लड़कियाँ कैसे आईं और कहां से आईं?”
“चार-पांच दिन पहले एक आदमी आया था रात को दादा के पास चार लड़कियाँ लेकर, कुछ पैसे लेकर लड़कियाँ वहां छोड़ गया था। कह रहा था इनके अच्छे दाम मिल जाएंगे”
“वो लड़कियाँ कितनी बड़ी हैं? क्या वो अभी तक वहीं हैं? क्या वो भी तुम्हारी तरह भीख मांगने जाती हैं?”

“हाँ अभी तक वो सब वहीं पर हैं। पर जो सबसे बड़ी वाली है ना सुरीली, दादा उसे कह रहे थे उसे बहुत बड़े सुन्दर से घर में भेजेंगे रात को।”
बंटी का माथा ठनका कि कहीं न कहीं लड़की के साथ कुछ गड़बड़ होने वाली है”
“देखो… मेरी बात को ध्यान से सुनो… मैंने तुम्हें एक हज़ार रूपए कहा था ना लेकिन मैं तुम्हें दो हज़ार रूपए दूंगा बस तुम मुझे अपने अड्डे तक ले चलो”
“नहीं साहब… हम आपको वहाँ तक नहीं ले जा सकते, दादा हमें बहुत मारेंगे”
“तुम चिंता मत करो बस ये सोचो अगर वो लड़कियाँ तुम्हारी बहनें होती तो क्या तुम उन्हें वहाँ रहने देते? सोचो कि तुम्हें अपनी बहनों को उस नर्क से निकालना है और जब बहन की रक्षा का सवाल आता है तो हर भाई अपनी जान की बाज़ी लगा देता है। क्या तुम अपनी बहनों के लिए इतना भी नहीं कर सकते कि तुम मुझे वहां तक ले चलो? उन्हें वहाँ से कैसे निकालना है ये मैं देखूंगा”
बंटी की बातें सुनकर रामु और कृष्णा में जोश भर गया।
“चलिए साहब हम आपको लेकर चलते हैं।”
बंटी उन दोनों के साथ अपने चार-पांच मुशटंडे लेकर अड्डे पर पहुँच गया। दादा उस समय शराब का गिलास हाथ में लिए दो लोगों के साथ हँसी-मजाक में मशगूल था। बंटी ने पहले तो चुपके से सभी बच्चों को जो बड़ी गाड़ी साथ लाया था उसमें बैठा दिया फिर दादा के कमरे की तरफ चल पड़ा। दादा सहित तीनों शराब के नशे में टुन्न थे। बंटी को देखते एक बोला, “लो दादा तुम्हारा बैंक आ गया, कहाँ है लड़की जल्दी से बुलाओ उसे ताकि जल्दी से ही माया के दर्शन हो जाएं”
दादा बंटी को देखते हुए,”अच्छा तो वो साहब तुम ही हो, तुम तो बहुत छोटे लौंडे हो मुझे तो लगा था कोई बड़ी उम्र का होगा, ख़ैर इससे हमें क्या। लाओ हमारा माल दो और अपना माल ले जाओ”
“माल तो तुम्हें मैं दूंगा लेकिन लात-घूंसों का” कहते हुए बंटी और उसके साथियों ने उन तीनों को पकड़ लिया और सबसे पहले उन तीनों के गुप्तांगों पर वार किया जिससे वे दर्द से बिलबिला उठे, फिर उन तीनों के हाथों की एक-एक उंगली धीरे-धीरे तोड़ने लगे। तीनों दर्द से तड़पने लगे।
“तुम कौन हो और क्या चाहते हो? इस कदर हम पर अत्याचार क्यों कर रहे हो? हमारा कसूर क्या है?”
“तुम पूछते हो तुम्हारा कसूर क्या है? तुम जैसे लोगो की वजह से ही मासूम बच्चों का जीवन बर्बाद हो जाता है। मासूम बच्चों को पकड़कर उनके अंगों को क्षित-विक्षित करके, उन्हें भूखा-प्यासा रखकर, उन पर ज़ुल्म करके उनसे भीख मंगवाकर ऐश करते हो। कैसे वो मासूम बच्चे दर्द-तकलीफ़ सहते हैं इसका अहसास तुम्हें अब होगा” ऐसा कहते हुए बंटी ने अपने साथी से कहा,”अब्दुल तुम सभी बच्चों को ले आओ” अब्दुल जाकर गाड़ी में से सब बच्चों को बुला लाया।
“बच्चों डरने की कोई ज़रूरत नहीं है , हम सब आपके साथ हैं। जिस-जिस को जैसे-जैसे इसने तकलीफ़ दी है तुम सब भी उसी तरह इसे तकलीफ़ दो। रामु इसने तुम्हारी आँखें जलाई थी ना तुम इसकी आँखें जलाओगे और कृष्णा तुम इसके हाथ-पैर तोड़ो” तीनों के हाथ-पाँव तोड़कर उन्हें तड़पता छोड़कर सब वहाँ से चले गए।

दादा बंटी से बार-बार गुहार लगा रहा था,” इस तरह हमें छोड़कर मत जाओ। ये दर्द बर्दाश्त नहीं होता, इससे तो हमें मार दो इस तरह नहीं जी सकते।”
“नहीं तुम भी उसी तरह तड़पो जिस तरह तुमने बच्चों को तड़पाया” इस तरह से बंटी ने मांँ अर्थात शाइनी दीदी की मदद से कितने ही बच्चों को अच्छी ज़िन्दगी दी तथा कितने ही उनके सरगनाओ को पकड़वाया।
मंगला मुखी दीदी ने एक प्यारी सी लड़की प्रार्थना से बंटी की शादी करवाकर उसका घर बसा दिया। दीदी ने तो बहुत कहा कि बंटी अपनी पत्नी संग अलग घर लेकर रहो, कोई लड़की हम जैसे किन्नरों के साथ रहना पसंद नहीं करेगी, लेकिन बंटी नहीं माना बोला, “जिन्होंने मुझे नया जीवन दिया ऐसी माँ से मुझे दूर नहीं रहना। मेरी पत्नी को भी मेरे साथ ही रहना होगा। अगर वो नहीं रह सकती तो उसे मैं अलग घर ले दूंगा” बंटी की पत्नी ने कहा, “अरे नहीं.! जहाँ आप रहेंगे वहीं पर मैं भी रहूँगी।” इस तरह सभी मिलजुलकर एक ही घर में रहने लगे। अब बंटी की दो सुन्दर, प्यारी सी जुड़वा बेटियाँ भी हैं जो दीदी को दादी कहती हैं। लेकिन यहाँ बंटी को फिर से एक जबरदस्त झटका लगा। एक दिन अचानक दीदी का स्वर्गवास हो गया। बंटी उस दिन फूट-फूट कर रोया, “मेरी माँ मरी थी तब मुझे कुछ समझ नहीं थी, मैं अनजान था इन सब बातों से लेकिन हकीकत में आज मेरी माँ मरी है। आज मैं अनाथ हुआ हूँ”
एक साल बाद बंटी की माँ अर्थात मंगला मुखी शाइनी दीदी की बरसी वाले दिन ही बंटी को सूचना मिली कि हज़ारों बच्चों की ज़िन्दगी संवारने तथा सैंकड़ों गैंग पकड़वाने हेतु राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कृत किया जाएगा। तय हुए दिन जैसे ही राष्ट्रपति जी बंटी के गले में तमगा डालने लगते हैं तभी बंटी ने उनका हाथ रोक दिया, “क्षमा करें आदरणीय इस तमगे और इस पुरस्कार का हकदार मैं नहीं, मेरी माँ है। मेरी लाइफ़ के डार्क पार्ट को मिटाकर ब्राइट इन्होंने किया।” ऐसा कहते ही वो पीछे स्टेज पर लगी शाइनी दीदी माँ की तस्वीर से पर्दा हटा देता है। जहाँ पर बस्ती के सारे लोग भी फूलों का एक विराट हार लिए खड़े थे। सभी ने बंटी को कँधे पर उठा लिया और राष्ट्रपति जी से कहा, अब पहनाईये सर जी इस हीरो की जगह हमारे सिर आँखों पर है।

Image Courtesy: https://www.pexels.com/@parijb/
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– प्रेम बजाज & भावना ठाकर 

लेखक परिचय:

भावना ठाकर बेंगलोर (कर्नाटक) की एक प्रतिष्ठित लेखिका हैं, जिन्होंने B.Com की शिक्षा प्राप्त की है। पढ़ना, लिखना और संगीत सुनना इनके जीवन का अभिन्न हिस्सा है। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को 300 से अधिक प्रशस्तिपत्रों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।

भावना ठाकर को स्टोरी मिरर और पिंकिश फ़ाउंडेशन जैसे सशक्त मंचों द्वारा राइटर ऑफ़ दि ईयर अवार्ड से सम्मानित किया गया है। उनकी रचनाएँ संवेदनशील भावनाओं, गहन विचारों और जीवन के विभिन्न पहलुओं को सहज, प्रभावी और पाठकों के हृदय तक पहुँचाने की क्षमता रखती हैं।

प्रेम बजाज एक गृहणी और लेखक हैं, जिनकी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे गृहशोभा, सरिता, मुक्ता, मनोहर कहानियाँ और सरस सलिल में प्रकाशित हो चुकी हैं।

उनकी अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें दो काव्य संग्रह, एक कहानी संग्रह (भावों का संपुट), एक आलेख संग्रह (क्रिटिसिज़्म), एक हॉरर उपन्यास (शापित कन्या), एक प्रेम उपन्यास (My Silent Love) और एक नर्सरी राइम्स बुक (सुनहरा बचपन) शामिल हैं। प्रेम बजाज का लेखन पाठकों के दिलों को छूने की क्षमता रखता है और जीवन के विविध पहलुओं को गहरे और सशक्त तरीके से प्रस्तुत करता है।

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