प्यारी माँ,
तुम्हारे लिए ख़त लिखना कितना मुश्किल हो रहा है, मैं बता नहीं सकती। शब्द जैसे मुझसे बगावत कर रहे हैं। कोई उपयुक्त शब्दकोश नहीं मिल रहा जिससे शब्दों को चुनकर तुम्हें समर्पित कर सकूँ।
यूँ तो कहने को तुमसे न जाने कितनी बातें हैं, जो चाहते हुए भी न कह पाई और न ही कभी इसकी ज़रूरत महसूस की।
पर आज लगता है वो सारी बातें तुम्हें कह देनी चाहिए। आख़िर तुम्हें भी तो लगता होगा कि कोई तुम्हारे निःस्वार्थ कार्यों के महत्व को समझे, उसे सराहे, उसकी तारीफ़ करे और उसके लिए कृतज्ञता प्रकट करे।
तो आज इस विशेष ख़त के माध्यम से मैं तुमसे कहना चाहती हूँ — शुक्रिया मम्मी, उन सभी कार्यों के लिए जो तुमने मेरे लिए किए हैं और करती आ रही हो।
शुक्रिया तुम्हारा, जो आज भी मेरे अंदर के बच्चे को तुमने मरने नहीं दिया।
शुक्रिया तुम्हारा, जो हर मुश्किल में मजबूत ढाल बनकर खड़ी रही और हर दुख-तकलीफ़ में मरहम बनकर मेरे दर्द की तीव्रता को कम किया।
मुझे आज भी याद है वह घटना जब किसी पड़ोसी ने मेरी बीमारी को लेकर मुझ पर व्यंग्य कसा और मैं रोते हुए घर आई।
तुमने मुझे दुलारने की जगह तेज डाँटा और कहा, “जिस चीज़ में तुम्हारी कोई ग़लती नहीं, उसके लिए रोना मूर्खता है। क्या तुम्हें मैंने इस दिन के लिए पढ़ाया-लिखाया है कि तुम लोगों की फालतू बातों को सुनो और रोते हुए घर आओ?”
तुमने कहा, “तुम्हें मजबूती से उनके सामने खड़े होकर जवाब देना चाहिए था, ताकि कोई तुम्हें तुम्हारी बीमारी को लेकर मज़ाक न बना सके।”
उस दिन और आज के दिन के बीच मैंने कभी अपनी बीमारी को लेकर हीन भावना नहीं रखी। परिस्थितियों को स्वीकार कर, उनके अनुरूप स्वयं को ढाला।
गाँव के उस माहौल में जहाँ लड़कियों को अपने शहर से बाहर जाकर पढ़ने की इजाज़त नहीं थी, तुमने सबसे पहले घर में हमारी पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया ताकि हम समाज में अपनी पहचान बना सकें।
और मुझे इतना मज़बूत किया कि कम सुविधा के माहौल से निकालकर हॉस्टल में रहकर पढ़ने के लिए भेजा, जहाँ मैंने छठीं से लेकर दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की।
तुम्हारा सपोर्ट ही था कि लंबी बीमारी के संघर्षों के बीच मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर पाई और अपने पैरों पर खड़ी हो पाई।
माँ, तुम्हारा होना मेरे लिए सबसे बड़ा बल है।
तुमसे ही हिम्मत, ताक़त, प्रेरणा और संयम का गुण सीखकर जी रही हूँ — और यही मेरी पूँजी है।
माँ के लिए कविता
माँ मेरे दुख-सुख की सच्ची साथी,
जैसे लगे दीया संग हो जलती बाती,
अँधेरे में रोशनी बन वह जीवन में आती,
जीवन के सारे अनुभव वह मुझे बताती।
बनकर ढाल सदा ही वह संग खड़ी रही,
मेरे लिए हर मुश्किल में वह अड़ी रही,
मेरे हौसलों को सदा ही हिम्मत देती,
समभाव से सुख-दुख में वह पड़ी रही।
उसने हर मुश्किल में मेरा साथ निभाया,
हर आँसू को पोंछ मुझे सदा ही हँसाया,
मेरे अंदर आत्मविश्वास को जगाकर,
स्वावलंबन का पाठ सदा ही पढ़ाया।
उनके ही दम से मेरे अंदर आई हिम्मत,
ज़माने की ग़लत बात पर की बगावत,
हर बार मुखर होकर मैं खड़ी हो पाई,
डटकर खड़ी हुई जो थी ज़रूरत।
मैंने लोगों की सहानुभूति भरे शब्दों को टोका,
दया दिखाने से उन्हें मैंने सदा ही रोका,
अपनी पहचान मैंने अपने दम पर सदा बनाई,
नहीं झूठ बोला, नहीं दिया किसी को धोखा।
मेरी माँ के कारण ही ज़माने से नज़र मिला पाई,
सही-ग़लत का भेद उन्हें मैं खुलकर बताई,
बताया — दृढ़ता ही जीवन की असली पहचान है,
जीवन का मैं नया नज़रिया सबको है सिखाई।
बस, अब और क्या कहूँ…
तुम्हारी बेटी
– रूचिका राय
चित्र सौजन्य: https://www.pexels.com/@seymasungr-1499342462/
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लेखिका परिचय:
रूचिका, हिंदी साहित्य की एक समर्पित साधिका, अपने भावों और संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में विश्वास रखती हैं। उनका जन्म 29 अक्टूबर 1982 को श्री राजकिशोर राय और श्रीमती विनीता सिन्हा के परिवार में हुआ। हिंदी में स्नातकोत्तर एवं बी.एड. की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने शिक्षण को अपना पेशा बनाया और वर्तमान में राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय, तेनुआ, गुठनी, सिवान, बिहार में शिक्षिका के रूप में कार्यरत हैं।
साहित्य के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें लेखन की ओर प्रेरित किया, जिसके परिणामस्वरूप उनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनकी एकल काव्य संग्रह “स्वपीड़ा से स्वप्रेम तक” और “तितिक्षा (भावों का इंद्रधनुष)” पाठकों द्वारा सराही गई हैं। उन्होंने “अभिनव अभिव्यक्ति (ए बांड ऑफ नवोदयन्स), इबादत की तामीर, अभिनव हस्ताक्षर, दुर्गा भावांजलि, शब्ददीप (इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल)” और “काव्यमणिका” जैसे साझा संकलनों में भी योगदान दिया है। इसके साथ ही, “अभिव्यक्ति (बांड ऑफ नवोदयन्स)” की उप-संपादक के रूप में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही है।
कई साहित्यिक मंचों से पुरस्कृत रूचिका अपनी कविताओं के माध्यम से जीवन की कड़वी-मीठी सच्चाइयों और कोमल कल्पनाओं को साकार करती हैं। वे मानती हैं कि अनुभूत संवेदनाओं का कोई मोल नहीं होता और भावनाएँ ही जीवन पथ पर आगे बढ़ने का संबल देती हैं।