1. ज़िन्दगी क्या है
ज़िन्दगी…
कोई आसान सवाल नहीं,
हर जवाब के पीछे एक नया सवाल लिए चलती है।
कभी मुस्कुराहट की वजह बन जाती है,
तो कभी अश्कों में भीगती चुप्पी बन जाती है।
कभी बचपन की उंगलियाँ थामे चलती है,
तो कभी अधूरी ख्वाहिशों में उलझ जाती है।
ज़िन्दगी…
एक सफ़र है — बिना नक़्शे के,
जहाँ हर मोड़ पर एक नया खुदा बसता है।
कभी भीड़ में तन्हा छोड़ देती है,
तो कभी तन्हाई में भी खुद को ढूँढ़ने का हुनर देती है।
ये काँच भी है, पत्थर भी,
जो गिर जाओ तो चुभती है,
और अगर थाम लो — तो तस्वीर बनती है।
ज़िन्दगी…
ना पूरी होती है, ना खत्म,
ये चलती है — सांसों के साथ,
और कभी-कभी… ख़्वाबों के खिलाफ़।
2. मैं सबके बीच रहकर भी गुमनाम था
मैं सबके बीच रहकर भी गुमनाम था,
चेहरों का शहर, पर मैं बेनाम था।
कहने को रिश्ते थे हर मोड़ पर,
पर दिल के करीब कोई नाकाम था।
सुना सबने, समझा किसी ने नहीं,
हर जवाब से पहले एक इल्ज़ाम था।
मैं जलता रहा उनकी रौशनी में,
और उनका कहा — यही मेरा काम था।
ख़ुशी की तलाश में निकला जो कभी,
तो जाना — दर्द ही मेरा ईनाम था।
अब आइनों से डर लगता है मुझे,
हर शक्ल में एक झूठा सलाम था।
3. न हाल बदला है
न हाल बदला है, न मुकाम बदला है,
वक़्त तो गुज़र गया, पर अंजाम बदला है।
ख़्वाब अब भी वहीं हैं, सजे हुए से मगर,
आँखों का देखना है, बस अंदाज़ बदला है।
ज़माना कहता है, तेरा सफ़र ठहर सा गया,
उन्हें क्या ख़बर, मेरा इम्तिहान बदला है।
दिल की धड़कनों में वही तन्हाई छुपी है,
बस दर्द कहने का अब नाम बदला है।
कश्ती तो डूबी है उसी समंदर के बीच,
बस लहरों का खेलने का पैगाम बदला है।
न शिकवा किया हमने, न अफ़सोस जताया,
बस तेरा देखने का हर इल्ज़ाम बदला है।
न हाल बदला है, न मेरे ख्वाबों की दुनिया,
बस हकीकत का आजकल क़लाम बदला है।
4. ये संसार
ये संसार तो बहती नदी की तरह,
हर मोड़ पर बदले, कभी न ठहरे।
कल जो था अपना, आज पराया लगे,
हर क्षण नया, फिर भी सब पुराना लगे।
यहाँ इच्छाओं का है मेला सजा,
कोई भागे मुकुट को, कोई साधु बना।
कभी लगता स्वर्ग, कभी लगता शूल,
कभी लगे मंदिर, कभी छल का स्कूल।
यहाँ पत्थर भी रोते हैं रातों में,
और फूल भी चुभते हैं बातों में।
यहाँ सत्य की राहें हैं तंग बहुत,
झूठ मुस्कराए, है ढंग बहुत।
लेकिन फिर भी, इसमें जीवन है,
हर धड़कन में कोई स्पंदन है।
सुख-दुख की इस साझेदारी में,
कुछ तो है जो बसता है हमारी आत्मा की यारी में।
यह संसार तुम्हारा भी है, मेरा भी,
कभी उजला, कभी अंधेरा भी।
क्यों न हम इसे समझें प्यार से,
ना केवल शब्दों, ना केवल विचार से।
मानवता के दीप जलाएँ इसमें,
दर्द को भी गीत बनाएँ इसमें।
क्योंकि ये संसार, जैसा भी लगे,
हमारे भीतर की छवि को ही जगे।
5. कभी मिला कीजिए
कभी मिला कीजिए
उन रास्तों पर,
जहाँ हमारे क़दमों की आहट
अब भी इंतज़ार में बैठी है।
वहाँ वो सूखे पत्ते
अब भी कहानी कहते हैं,
जहाँ हम दोनों ने
पहली बार ख़ामोशी में बातें की थीं।
कभी दो पल चुरा लिया कीजिए
इस तेज़ रफ़्तार दुनिया से,
जहाँ हर चीज़ की क़ीमत है,
पर वक़्त देने का जज़्बा कम।
हमने बहुत कुछ कहने को रोका था,
कुछ डर था, कुछ संकोच,
पर आप तो अपने थे न?
कभी उस चुप्पी को भी सुना कीजिए।
कभी मिला कीजिए
बिना कुछ खोए, बिना कुछ माँगे —
जैसे बचपन में मिलते थे दोस्त,
सिर्फ़ मिलने के लिए।
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– मुकेश बिस्सा

लेखक परिचय :
मुकेश बिस्सा एक प्रशिक्षित स्नातक गणित शिक्षक हैं और केंद्रीय विद्यालय संगठन से जुड़े हुए हैं। वे साहित्य और शिक्षा—दोनों क्षेत्रों में समान रूप से सक्रिय और समर्पित हैं।
उनकी रचनाएँ एक स्पर्श, एक एहसास, काव्यांजलि, सफर-ए-ज़िंदगी, अभिव्यक्ति, मंथन, साहित्यनामा जैसे कई प्रतिष्ठित साझा काव्य संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं।
उन्हें सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार, द्रोणाचार्य पुरस्कार, संस्कार भारती सम्मान, रामकृष्ण राठौड़ पुरस्कार, भारत गौरव सम्मान, महात्मा गांधी साहित्य सम्मान, काव्यश्री सम्मान, तथा इंटरनेशनल बुक ऑफ वर्ल्ड अवॉर्ड सहित 30 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है।
शिक्षा और साहित्य—दोनों ही क्षेत्रों में उनका योगदान अत्यंत प्रेरणादायक और उल्लेखनीय है।